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ऑपरेशन सिन्दूर : आतंकी ठिकानों पर ‘हमले अच्छे हैं’, लेकिन प्रतिशोध अधूरा है अभी!

समीर शिवाजी राव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश

‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के तहत पूर्वी पंजाब में इस्लामवादी दरिन्दों के ठिकानों पर हमला महत्त्वपूर्ण और उपयोगी है। लेकिन भारतीय नीति चिन्तन के आलोक में यह अपर्याप्त और असन्तुष्टिकारक प्रतिशोध है। बहुत सम्भव है कि सरकार पर इसे लेकर दुनिया का दबाव रहा हो। इस कार्रवाई में कुछ देशों का सहयोग भी हो सकता है, जो यकीनन हमारी कूटनीतिक जीत है। लेकिन इस घटना को मीडिया, राजनेता और आमजन जिस बोथरी बुद्धि से विजय के रूप में निरूपित या ग्रहण कर रहे हैं, वह हमारे मानस की अपरिपक्वता को रेखांकित करती है। यही इस लेख का विधेय है।

हमारी प्रतिक्रिया पहलगाम के नृशंस कत्लेआम पर हमारे बलहीन उथले क्षोभ की स्थिति का तार्किक विस्तार ही है। भारतीय कार्रवाई को अपर्याप्त और अधूरी कहने का आशय क्या है? संकेत किस दिशा या तथ्य की ओर है? तो शुरू करते है हमारे नीतिशास्त्र से। नीतिशास्त्र कहता है, “प्रतिशोध भावनात्मक रूप से पहले उकसाने वाली कार्रवाई के स्तर और अनुपात में अधिक या बराबर होना चाहिए। प्रतिशोध कम से कम प्रथम प्रहार के उद्रेक का शमन करने वाला होना चाहिए।” पहलगाम में निरपराध यात्रियों का जिस नृशंसता और अपमानकारक स्थिति में वध किया गया, उसके बदले में कुछ आतंकियों के शिविर-मदरसों पर मिसाइल बरसाना यथेष्ट नहीं है। इसीलिए आज की कार्रवाई यदि इसी स्तर पर रुक जाती है, तो वह अधूरी ही मानी जाएगी, पूरी नहीं।

इस स्थापना के पीछे ठोस वजह यह है कि वर्तमान कार्रवाई पहलगाम की नृशंसता के भावनात्मक परिणाम को महरम नहीं लगा पाती। स्पष्ट भाषा में कहें, तो जैसा अपमान कर निरपराध लोगों का वध किया गया, उसके बदले आततायियों के ठिकानों पर मिसाइलें दागना पूरा प्रतिशोध नहीं कहा जा सकता। वह तो कर्तव्य था, जो समय पर भी पूरा नहीं किया गया क्योंकि आततायियों को तो बहुत पहले ही मार दिया जाना चाहिए था।

यहाँ महाभारत युद्ध में भीमसेन का उदाहरण दृष्टव्य है। भीमसेन ने महारानी द्रौपदी के अपमान के बदले ज्येष्ठ धृतराष्ट्र पुत्र की जंघा तोड़ने और दूसरे पुत्र के हृदय का गर्म रक्त पीने की प्रतिज्ञा की थी। पाखंडी इसकी चाहे जो आलोचना करें, लेकिन मनुष्य के नैतिक आक्रोश के परिष्कार का इससे उत्कृष्ट उदाहरण सूझ नहीं पड़ता। यही कारण है कि चींटी, पशु-पक्षियों को भी दु:ख पहुँचाने का निषेध करने वाले हमारे शास्त्र इस कर्म की निन्दा आदि नहीं करते। शत्रु को युद्ध में सन्तुष्ट करना, उसकी हौंस पूरी कर देना यह क्षात्र धर्म प्रसिद्ध है। और सच्चा वीर क्षत्रिय हार कर भी ऐसे प्रतिद्वन्द्वी की प्रशंसा करता है। सन्तुष्टिपूर्वक वीरगति को प्राप्त होते हुए उत्तम लोक को जाता है।

यदि हमारा प्रतिशोध भावनात्मक रूप से बराबरी का नही होता, तो यह उस नैतिक आक्रोश, रोष और दु:ख का शमन नहीं करता, जो हमारे मानस पर ऐतिहासिक रूप से अमिट हो गए हैं। ऐसी स्थिति में जब शत्रु घटना का उत्सव मनाता है, तो यह हमें स्वयं की लाचारगी और हीनता के अतल सागर में डूबो देता है। यह हमारे आत्मविश्वास और बल की मृत्यु ही होती है। इसलिए भले ही हमारे कर्म लौकिक दृष्टि से क्रूर या बर्बर लगे, अपने नैतिक मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी है। यहाँ अल्प-सन्तुष्ट होना हमें चारित्रिक रूप से सतही, उथला और कमजोर करता ही है।

आज मीडिया का कवरेज, राजनेताओं की प्रतिक्रियाएँ देखें तो टीवी, अखबार और यूट्यूब पर अपने विचार बेचने वाले अधिकांश लोग भी इस रोग से पीड़ित दिखते हैं। इसके दूसरे छोर पर किसी अफ़लातून व्यापक अहिंसा, सर्व-समभाव की बात करने वालों की स्थिति का विश्लेषण करें तो वे या तो पाखंडी होते हैं या दम्भी मूर्ख। इनमें से पाखंड़ी वे होते हैं, जो वृहद सार्वलौकिक-सार्वदेशिक अहिंसा के आदर्श का गान करते हुए आततायी के सामने दूसरा गाल बढ़ाने की शिक्षा देते हैं किन्तु खुद पर मौका आने पर अप्रत्याशित हिंसाचार कर बैठते हैं। जैसे यूरोपीय देश।

दूसरी श्रेणी में आने वाले ज्यादातर गुलाम मानसिकता वाले दम्भी मूर्ख होते हैं जो इस दुष्प्रचार काे ही सत्य मानकर अपने समुदाय को निशस्त्र कर बैठते हैं। आकंठ आत्ममुग्धता में डूबे ऐसे तथाकथित महामानव देश-सभ्यता के लिए सबसे घातक खतरा बनते है। ऐसे उदाहरण हम सबको ज्ञात है, यहाँ उनका उल्लेख जरूरी नहीं। 

इस समय मौका है कि हम अपने नैतिक मूल्यों की समझ को पैनी करें और तदनुरूप अपने घर और राष्ट्र को सशक्त करें। हमारा लक्ष्य प्राकृतिक नैतिक चिन्तन और तदनुरूप आचरण को पोषित करने का होना चाहिए, जो हमारी सभ्यता को व्यवहारिक रूप से मजबूत करने वाला हो। इसलिए गहरी चिन्ता यह है कि उथले लोकप्रिय कथानक हमें अल्प में सन्तुष्ट न कर दें, क्योंकि जो थोड़े में ही सन्तुष्ट हो जाता है उसे विराट की प्राप्ति नहीं होती।

इसका दूसरा पक्ष यह है कि अल्प सन्तुष्टि नीच-हीनधर्मा समुदायों को प्रोत्साहित करती है। यथार्थ और बड़े शत्रु के प्रति व्यवहार के नाकाबिल बना देती है। पाकिस्तान के इस्लामवादी दहशतगर्द और सरकार इसका बदला लेने को बेताब रहेंगे। हमले में हलाक हुए लोगों के जब जनाजे निकलेंगे, तो आपको इसकी तस्दीक हो जाएगी। ऐसे में वास्तविक और प्रभावशाली प्रतिशोध को भूलकर सतही जीत के उत्सव में व्यस्त हो जाना हमारी मूर्खता होगी। लिहाजा, हमें अपनी नीति के उन ठोस मूल्यों पर खड़े होनेे की जरूरत है जो हममें सबसे प्रबल विरोधी से भी निपटने का नैतिक साहस भरने में सक्षम हो। वास्तविक और प्रभावशाली प्रतिशोध लेने के रास्ते में हमें अग्रसर करता हो।

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