टीम डायरी
आज, 14 सितम्बर को ‘हिन्दी दिवस’ मनाया गया। मीडिया और सोशल मीडिया में पूरे ज़ोर-शोर से रस्में हुईं। हालाँकि यह बात दीगर है कि रस्म-अदायगी के अधिकांश हिस्से में ‘हिन्दी’ शब्द को भी उसके शुद्ध रूप में लिखने की ज़्यादातर लोगों ने ज़हमत नहीं उठाई। कहीं-कहीं तो इससे भी अधिक दिलचस्प बात हुई कि एक व्यक्ति की एक ही पोस्ट या लेख में ‘हिन्दी’ शब्द को उसके शुद्ध और अशुद्ध (हिंदी), दोनों रूपों में लिखा देखा गया। ख़ैर! रस्म-अदायगी में इससे ज़्यादा उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। सो, किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ा।
अलबत्ता, इस पूरी क़वा’इद के बीच कुछ लोगों के ज़ेहन एक ख़बर पर ज़रूर जा अटके होंगे। ‘हिन्दी दिवस’ पर ही एक ऐसे बड़े हिन्दी अख़बार ने इसे प्रकाशित किया, जो अक्सर तथ्यों, नामों, वग़ैरा की तोड़-मरोड़ के लिए लोगों के निशाने पर रहा करता है। लेकिन उसी की यह ख़बर काबिल-ए-ज़िक्र रही कि दक्षिण भारत के जो प्रदेश कुछ सालों पहले तक हिन्दी-विरोध के लिए सुर्ख़ियों में रहे, उन्हीं में इस भाषा को सीखने का सिलसिला ज़ोर पकड़ने लगा है। जैसे- तमिलनाडु में ही, जहाँ हिन्दी के विरोध में आन्दोलन 1937 में शुरू हुआ और बाद में इस भाषा पर की जाने वाली सियासत ने कई नेताओं, राजनीतिक दलों की दुकानें सजा दीं। अब तक सजाए रखीं।
लेकिन अब भाषा के नाम पर राजनीति का यह सिलसिला टूटता दिख रहा है। ख़बर की मानें तो दक्षिण के राज्यों में इस वक़्त तमिलनाडु में ही युवा पीढ़ी के सबसे अधिक लोग हिन्दी सीख रहे हैं। दक्षिणी राज्यों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देने के लिए बीते कुछ सालों से ‘दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा’ नाम की एक संस्था सक्रिय है। यह संस्था हिन्दी सीखने के इच्छुक लोगों के लिए साल में दो बार परीक्षाएँ आयोजित करती है। तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, में यह परीक्षा होती है। इस संस्था से मिले आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2022 में हिन्दी की परीक्षा में इन राज्यों के 5.12 लाख लोग बैठे। इनमें से 2.86 लाख लोग तमिलनाडु के थे।
ख़ास बात ये कि जो लोग परीक्षा दे रहे हैं, उनमें 80 प्रतिशत तक स्कूली बच्चे हैं। यहाँ तक कि नर्सरी कक्षाओं के बच्चों को भी उनके अभिभावक, हिन्दी की कक्षाओं और उनके स्तर की परीक्षा में बैठने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। हिन्दी सीखने वाले लोगों की संख्या के मामले में आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना दूसरे क्रम पर हैं। इसके बाद कर्नाटक और केरल। मतलब कम लफ़्ज़ों में समझने का मसला सिर्फ इतना है कि भाषा के नाम पर सियासत के दिन, काफ़ी हद तक, अब लद चुके हैं। और जो कुछ बचे हैं, वे भी कुछेक सालों में लदने वाले हैं।
लिहाज़ा, उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द-तर (अतिशीघ्र) यही स्थिति जाति, धर्म, संप्रदाय और क्षेत्र के नाम पर की जाने वाली सियासत की भी होगी। और उससे भी जल्द-तर, नेताओं को यह समझ आ जाएगा कि वे अब इन मसलों पर अपनी सियासी रोटियाँ सेंक नहीं पाएँगे। उन्हें इससे आगे बढ़कर लोगों के भले से जुड़े मसलों पर अपना ध्यान लगाना पड़ेगा, नहीं तो उनकी दुकान बन्द भी हो सकती है।
हिन्दी दिवस की अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ।
(लेखक विषय की गम्भीरता और अपने ज्ञानाभास की सीमा से अनभिज्ञ नहीं है। वह न… Read More
दुनिया में तो होंगे ही, अलबत्ता हिन्दुस्तान में ज़रूर से हैं...‘जानवरख़ोर’ बुलन्द हैं। ‘जानवरख़ोर’ यानि… Read More
हम अपने नित्य व्यवहार में बहुत व्यक्तियों से मिलते हैं। जिनके प्रति हमारे विचार प्राय:… Read More
अंबा को यूँ सामने देखकर तनु बाकर के होश उड़ गए। अंबा जिस तरह से… Read More
“भारत को बुद्धिमत्ता (कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानि एआई) के आयात के लिए अपनी जानकारियों (डेटा) का… Read More
आन्ध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम शहर से लगे एक गाँव की पहाड़ी पर 61 एकड़ के… Read More