हक़ दे इंडिया, इन ‘लड़ाकियों’ को हमारी सांत्वना नहीं चाहिए!

नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश से; 6/8/2021

भारतीय महिला हॉकी टीम टोक्यो ओलम्पिक खेलों में चौथे नम्बर रही। शुक्रवार, छह अगस्त को ब्रिटेन ने नज़दीकी मुकाबले में भारत की टीम पर चार-तीन से जीत हासिल की। यह वही ब्रिटिश टीम है, जिसने शुरुआती मुकाबले में भारत काे चार-एक से हरा दिया था। पिछले ओलम्पिक की स्वर्ण पदक विजेता थी। लेकिन इस बार वह काँस्य पदक के लिए भारत से मुकाबला कर रही थी। इसमें भी मध्यान्तर तक तो ब्रिटिश टीम दो-तीन से पिछड़ ही चुकी थी। यानि लड़ाई लगभग बराबर की थी। फिर भी खेल है। जीत-हार तो होती ही है, किसी न किसी की। सो, वह मुकाबला और काँसा जीत ले गई।

लेकिन इसके बाद सवाल ये उठता है कि हम भारतीय, अपनी महिला हॉकी टीम के मुकाबले को किस तरह से देखते हैं? तो इसका ज़वाब ये है कि इन ‘लड़ाकियाें’ के लिए भी हमारा भाव अब भी सांत्वना से भरा हुआ ही अधिक नज़र आता है। तथाकथित सामाजिक मंचों (Social Media) पर तो  यह ‘सांत्वना अभियान’ शुरू भी हो चुका है। ‘कोई बात नहीं’, ‘इस बार नहीं तो अगली बार जीत लेंगे’, ‘तुम्हारे संघर्ष को सलाम’। इस किस्म के ढेरों ज़ुमले चल पड़े हैं। यक़ीन मानिए शनिवार की सुबह मीडिया में भी ‘ख़ूब लड़ी मर्दानी’ जैसे शीर्षक ही प्रमुखता से नज़र आने वाले हैं। क्योंकि वहाँ बैठे लोगों का अपना बौद्धिक स्तर है।

पर ग़ौर से सोचें तो फ़र्श से अर्श (ज़मीन से आसमान) तक पहुँची इन ‘लड़ाकियों’ को क्या हमारी सांत्वना की ज़रूरत है? निश्चित तौर पर नहीं। इनकी ज़िद, इनके ज़ूनून और इनकी कामयाबी का सफ़र तो हमारी कम-मदद और अधिक-उपेक्षा के बावज़ूद भी जारी ही है। इस सफ़र में हमारी सांत्वना से कोई तेजी नहीं आने वाली। कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला। लिहाज़ा अगर हम इन्हें कुछ देने का जज़्बा रखते ही हैं तो इन्हें इनका हक़ दें। इसकी इन्हें ज़रूर अब इस मुक़ाम पर पूरे देश से दरकार होगी।

इन्हें इनका हक़ चाहिए, क्योंकि जानकारों की मानें तो महिलाओं को हॉकी में ही पुरुषों की तुलना में 10 गुना तक कम मेहनताना दिया जाता है। बैडमिंटन, टेनिस, जैसे तमाम खेलों में यही हाल है। क्रिकेट जैसे धनी-मानी खेल में भी महिलाएँ मेहनत में पुरुषों के बराबर ही हैं। लेकिन मेहनताने में बहुत-बहुत पीछे। यही हाल अन्य सुविधाओं का भी है।

इन्हें इनका हक़ चाहिए, क्योंकि पुरुषों से हमेशा कम आँके जाने के बावज़ूद इसी ओलम्पिक प्रतियोगिता में पहले ही दिन देश को गौरवान्वित करने वाली एक ‘लड़ाकी’ ही थी। मीराबाई चानू, जिसने देश के लिए सबसे पहले भारोत्तोलन में रजत पदक जीता था। फिर लगातार दूसरे ओलम्पिक में पदक जीतने का इतिहास रचने वाली भी ‘लड़ाकी’ ही थी, पीवी सिन्धु। यही नहीं, अब तक देश के ख़ाते में इस बार जो पाँच पदक आए हैं, उनमें तीन (मुक्केबाज़ लवलीना को मिलाकर) ‘लड़ाकियों’ ने दिलवाए हैं। 

इन्हें इनका हक़ चाहिए, क्योंकि इनके ऐसे योगदान और इस समर्पण के बावज़ूद अब भी पुरुष खिलाड़ियों की तरह इन पर करोड़ों रुपयों के उपहारों की बारिश होने की ख़बरें नहीं ही आती हैं। या आती हैं तो कभी-कभार, अपवाद-स्वरूप।

इन्हें इनका हक़ चाहिए, क्योंकि हमारे समाज ने अब तक बेटियों के यौन उत्पीड़न, दुष्कर्म आदि के कलंक से मुक्ति नहीं पाई है। ऐसी घटनाएँ तो क़रीब-क़रीब रोज़ ही सुर्ख़ियाँ बना करती हैं। 

इन्हें इनका हक़ चाहिए, क्योंकि भारतीय परिवारों में बेटे को गिलास भरकर गाढ़ा दूध और बेटी को आधे गिलास पानी मिलाकर दूध-जैसा कुछ पिला देने की परम्पराएँ अभी ख़त्म नहीं हुई हैं। 

इन्हें इनका हक़ चाहिए, क्योंकि बेटियों को पैदा होते ही मार दिए जाने की कुरीति अब भी तमाम इलाकों में बदस्तूर क़ायम है।

इन्हें इनका हक़ चाहिए, क्योंकि 10वीं-12वीं के परीक्षा परिणाम में क़रीब-क़रीब हर साल ही लड़कों को पीछे छोड़ देने वाली लड़कियों को पढ़ने-लिखने, आगे बढ़ने के मौके आज भी तुलनात्मक रूप से कम ही मुहैया होते हैं। 

इसीलिए आज इस अहम ऐतिहासिक मोड़ (क्योंकि ओलम्पिक के इतिहास में पहली बार इस दफ़ा भारतीय महिला हॉकी टीम सेमीफाइनल तक पहुँची और चौथे नम्बर पर रही) पर सोचने की ज़रूरत है। तय करने की ज़रूरत है कि हम बेटियों को सांत्वना देकर फिर पुरुषों से कमतर साबित करना चाहते हैं या उन्हें उनका हक़ देकर सही मायने में, उन्हें आगे बढ़ने का मौका देना चाहते हैं। 

अगर हम अपनी हॉकी की इन ‘लड़ाकियों’ के लिए वाक़ई कुछ सम्मानजनक करना चाहते हैं, तो उनके लिए ही नहीं, तमाम खेलों और क्षेत्रों में महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन और सुविधाओं के बन्दोबस्त का संकल्प करें। पुरुषों के बराबर ही महिलाओं के अस्तित्त्व, व्यक्तित्त्व के सम्मान का भी इन्तज़ाम करें। इसके प्रयास करें। तब कहीं इन ‘लड़ाकियों’ की मेहनत सार्थक कहलाएगी और उसका सही सम्मान हो सकेगा।

सोशल मीडिया पर शेयर करें
Apni Digital Diary

Share
Published by
Apni Digital Diary

Recent Posts

सरल नैसर्गिक जीवन मतलब अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी!

मानव एक समग्र घटक है। विकास क्रम में हम आज जिस पायदान पर हैं, उसमें… Read More

2 days ago

कुछ और सोचिए नेताजी, भाषा-क्षेत्र-जाति की सियासत 21वीं सदी में चलेगी नहीं!

देश की राजनीति में इन दिनों काफ़ी-कुछ दिलचस्प चल रहा है। जागरूक नागरिकों के लिए… Read More

3 days ago

सवाल है कि 21वीं सदी में भारत को भारतीय मूल्यों के साथ कौन लेकर जाएगा?

विश्व-व्यवस्था एक अमूर्त संकल्पना है और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले घटनाक्रम ठोस जमीनी वास्तविकता… Read More

4 days ago

महिला दिवस : ये ‘दिवस’ मनाने की परम्परा क्यों अविकसित मानसिकता की परिचायक है?

अपनी जड़ों से कटा समाज असंगत और अविकसित होता है। भारतीय समाज इसी तरह का… Read More

6 days ago

रिमोट, मोबाइल, सब हमारे हाथ में…, ख़राब कन्टेन्ट पर ख़ुद प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाते?

अभी गुरुवार, 6 मार्च को जाने-माने अभिनेता पंकज कपूर भोपाल आए। यहाँ शुक्रवार, 7 मार्च… Read More

7 days ago