मायावी अंबा और शैतान : “अरे ये लाशें हैं, लाशें… इन्हें कुछ महसूस नहीं होगा”

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

तभी तेज हवा का थपेड़ा अंबा के चेहरे से टकराया और उसके गले से होते हुए भीतर पेट तक उतर गया। इससे उसे ऐसा लगा जैसे पूरा आकाश ही उसके शरीर में घुस गया हो। हवा की शीतलता ने हालाँकि उसका मुँह बंद कर दिया था। उसके तेज प्रवाह ने कुछ देर के लिए उसकी साँसें अटका दी थीं। लेकिन साथ ही उसके भीतर की दृढ़ता, जिद और प्रतिरोध की आग को भड़का भी दिया था।

इसी बीच उसे अपने पाँवों के पास बालों जैसी किसी चीज की छुअन का एहसास हुआ। उसने तुरंत अपने दाहिने हाथ से उस चीज को शरीर से दूर किया। लेकिन नीचे निगाह पड़ते ही उसकी घिग्घी बँध गई। क्योंकि उसके पैरों के पास एक लाश पड़ी हुई थी, जिसके चेहरे पर अब भी मुस्कान तैर रही थी। यह देख वह एक झटके से पीछे हटी। कुछ देर खुद को संयत किया और आगे निगाह डाली तो देखा कि लाशों के ढेर ने पूरा रास्ता रोक रखा है।

यह नजारा देख उन सभी की रूह काँप गई। डर के मारे हाल ऐसा कि ‘काटो तो खून नहीं’। रगों में खून जैसे जम गया हो। ऐसा लगता था जैसे खूँख्वार जंगली जानवरों ने उन लाशों के अंग-प्रत्यंग नोच डाले हों। खा डाले हों। उन लाशों के आस-पास पड़े नुकीले नट-बोल्ट से भरे हथगोले ऐसे जान पड़ते थे, जैसे हिंसक राक्षस मुस्कुराते हुए अपने नुकीले दांतों से शिकार को चबा जाने के लिए आतुर हों। इन हथगोलों से कोई ढाँचा गिरेगा या नहीं, यह निश्चित नहीं था। लेकिन इतना तय था कि नाजुक चमड़ी वालों, चाहे इंसान हों या जानवर, की खाल जरूर उतर जानी थी। मतलब आगे एक कदम रखते ही मौत निश्चित थी।

लिहाजा, अंबा ने बिना वक्त गँवाए हाथ उठाकर अपने दल को रुकने का इशारा किया।

“हे भगवान हमारी मदद करो!” बुरी तरह घबराए सोलोन ने भगवान से प्रार्थना की। उसे ऐसा लग रहा था मानो भूत-पिशाच उन लोगों को गुस्से से घूर रहे हों कि उनके इलाके में, मौत की इस घाटी में घुसने की उन्होंने हिमाकत कैसे की।

“अरे छोड़ो इन लोगों को। चलो, निकलो यहाँ से,” तभी कुंटा ने आग्रह किया। वह वहाँ से भागने के लिए पूरी तरह तत्पर था। पाँव तो उसके ऐसे तैयार थे कि वे शायद उसकी तरफ आती किसी मिसाइल को भी एक बार चकमा दे देते।

“नहीं, अपने लोगों में से किसी को भी हम यहाँ जानवरों का निवाला बनने के लिए नहीं छोड़ेंगे। भले ही वे मर क्यों न गए हों”, अंबा ने उसे बीच में टोकते हुए कहा। उसने पूरी तसल्ली से अपनी बात कही थी। और सही मायनों में, ऐसे माहौल के बीच, इस तरह वही बोल सकता था, जिसका दिल फौलाद का बना हो। जिसे किसी भी जोखिम की कोई परवा न हो।

“अरे ये लाशें हैं, लाशें… इन्हें कुछ महसूस नहीं होगा। तुम बताओ, होगा क्या?”, अब रोध ने कहा।

“लेकन इनके परिवारों को महसूस होगा। उन्हें हर एहसास होगा”, अंबा के जवाब में अब भी उसकी सोच की तरह ही दृढ़ता थी। “क्या तुम इन लाशों को एक जगह इकट्ठा करने में मेरी मदद करोगे?”

जवाब में रोध ने बड़े अजीब तरीके से सिर हिलाया। समझना मुश्किल था कि वह हाँ कह रहा है या न। आगे की कार्रवाई के बारे में सोचकर ही उसका हलक सूख गया था। क्योंकि लाशों को एक जगह इकट्‌ठा करने के लिए पहले हथगोलों को हटाना जरूरी था। यह आत्मघाती हो सकता था।

“इनको एक जगह इकट्‌ठा करना है…?”, वह धीरे से फुसफुसाया। डर के मारे उसकी आवाज भी ठीक से नहीं निकल रही थी।

“मैं इन्हें दफनाऊँगी। तुम इनको सिर्फ एक जगह इकट्ठा कर दो।” अंबा ने इस बार पहले से कुछ धीमे सुर में अपनी बात दोहराई। तभी रोध को जैसे अचानक होश आया और उसके पीले-मुरझाए चेहरे पर ऐसे भाव उभर आए जैसे वह कह रहा हो, “मेरी तरफ मत देखो!”

“तुम में से किसी के पास कोई बेहतर तरकीब है? इनको उठाना ही होगा।”

अंबा ने अपने साथियों की राय लेने की कोशिश की। क्योंकि काम जोखिम भरा तो था ही। सामने पड़े हथगोलों में से कई जिंदा बम हो सकते थे। उन्हें हाथ लगाने का नतीजा खतरनाक हो सकता था।

“कोई है, जो कुछ बताए?” उसने चारों ओर देखा। तभी उसकी आँखें सोलोन की आँखों से टकरा गईं।

“हाथों से? यह आत्महत्या करने जैसा है।” घबराहट में सोलोन के मुँह से निकला। उसकी आँखें फटी हुई थीं। दल के दूसरे साथी भी हिम्मत नहीं कर पा रहे थे। उनके हाव-भाव बता रहे थे कि वे इस दु:साहसिक काम के लिए तैयार नहीं हैं।

“क्या तुम्हारे पास कोई और बेहतर योजना है?”, अंबा ने सोलोन को जैसे चुप कराने की गरज से पूछा। क्योंकि सोलोन वैसे भी ऐसे मुश्किल हालात में कुछ खास मदद नहीं करता था।

तब कुछ अनमनेपन और झिझक के साथ कुंटा आगे आया। बोला, “ठीक है। तुम इनको इकट्‌ठा कर दो। मैं दफना दूँगा।”

“बहुत अच्छे। भरोसा करो मुझ पर। कुछ नहीं होगा।” कुंटा के प्रति कृतज्ञ भाव से वह बोली। इसके बाद उन दोनों ने दल के बाकी साथियों के सुरक्षित दूरी पर चले जाने तक इंतजार किया। 

—— 
(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली कड़ियाँ 

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1. ‘मायावी अंबा और शैतान’ : जन्म लेना ही उसका पहला पागलपन था 

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