जयन्ती : डॉक्टर हेडगेवार की कही हुई कौन सी बात आज सही साबित हो रही है?

अनुज राज पाठक, दिल्ली

अभी 30 मार्च को हिन्दी महीने की तिथि के हिसाब से वर्ष प्रतिपदा थी। अर्थात् नव वर्ष की शुरुआत, साल का पहला दिन। ऐसे ही अंग्रेजी कैलेंडर की तारीख़ों के हिसाब से एक अप्रैल काे भी वर्ष का पहला दिन होता है। इस तारीख़ से भारत सहित दुनिया के कई देशों में वित्तीय वर्ष शुरू होता है। यद्यपि यहाँ हम इन दोनों ही विषयों पर बात नहीं कर रहे हैं। हम बात करने जा रहे हैं देश के यशस्वी व्यक्तित्त्व श्री केशव बलीराम हेडगेवार जी के बारे में, जिनका जन्म 1889 में एक अप्रैल को ही हिन्दी नव वर्ष की प्रतिपदा के दिन हुआ था। निरन्तर सौ वर्षों से उपेक्षा और विरोध, उपहास और प्रतिबन्धों के बीच से होते हुए जिज्ञासा और स्वीकार्यता तक आ चुके संगठन के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार जी की जयन्ती उनके जीवन के पक्षों से परिचित होने का उचित अवसर है।

हिन्दू संस्कृति के ध्वजवाहक डॉक्टर हेडगेवार अपने छात्र जीवन से ही क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ गए थे। शुरुआती वर्षों में वे ‘अनुशीलन समिति’ नामक संगठन से जुड़े रहे। इससे जुड़ने के प्रसंग के विषय में प्रसिद्ध क्रान्तिकारी श्री त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती अपनी पुस्तक ‘जेल में 30 वर्ष’ में लिखते हैं कि केशव के महाविद्यालय के ही एक छात्र श्री नलिनी किशोर उन्हें तथा डॉ नारायण राव सावरकर को ‘अनुशीलन समिति’ में लाए थे। ‘अनुशीलन समिति’ में प्रवेश साधारण तरह से नहीं पा लेता था।

इसके बाद जब हेडगेवार जी की मेडिकल पढ़ाई ख़त्म हुई, तभी प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया। उन्होंने लड़ाई का प्रत्यक्ष अनुभव लेने के लिए भारत की सेना में भर्ती होना चाहा। इसके लिए अपना नाम भी भेजा, लेकिन उनका नाम पहले ही तरुण क्रान्तिकारियों की सूची में शामिल था। इस कारण ‘काली सूची’ में भी था। इसलिए सरकार ने उन्हें नहीं लिया। यद्यपि इससे यह भी पता चलता है कि डॉक्टर हेडगेवार अपने विद्यार्थी काल से ही सरकार विरुद्ध गतिविधियों में संलग्न थे। इस कारण उन पर सरकार की नजर भी थी। 

स्वतंत्रता पूर्व प्रायः सभी क्रान्तिकारी किसी न किसी रूप में पहले कांग्रेस से जुड़ जाते थे। कांग्रेस आम जनमानस में स्वतंत्रता आन्दोलन का सबसे प्रभावी संगठन दिखाई पड़ता था। लेकिन जैसे-जैसे कांग्रेस के साथ काम करते वैसे-वैसे उनका उससे मोहभंग भी होता। इस कारण कई क्रान्तिकारी अपने संगठन खड़े कर लेते या अन्य संगठनों से जुड़कर देश की स्वतंत्रता के प्रयासों में सहयोग करते। इसी तरह का मामला डॉक्टर हेडगेवार के साथ भी हुआ। वह वर्ष 1920 में हुए कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन के दौरान पार्टी की समिति से जुड़े, लेकिन जैसे-जैसे उन्होंने कांग्रेस की नीतियों को जाना, वैसे-वैसे उनका भी मोहभंग हो गया।

कांग्रेस द्वारा ख़िलाफ़त को आन्दोलन में परिणत करने और उसे भारतीय जनमानस से जोड़ने के प्रयास के सन्दर्भ में डॉ हेडगेवार का कथन बहुत महत्त्वपूर्ण है। उनका मानना था, “भारत में मुसलमानों के अतिरिक्त ईसाई, पारसी, यहूदी आदि दूसरे लोग भी हैं। परन्तु उनका कोई उल्लेख न करते हुए केवल हिन्दू-मुस्लिम की एकता की बात मुसलमानों में यह भावना निर्माण करेगी कि वे अन्य लोगों से कुछ विशेष हैं। इससे उनमें पृथकतावादी मनोवृत्ति उत्पन्न होगी, जो भारत के राष्ट्रजीवन के साथ उनका एकीकरण नहीं होने देगी।” डॉक्टर हेडगेवार का कथन आगे अक्षरशः सत्य भी सिद्ध हुआ।

इसी पृष्ठभूमि में उन्हें बिखरे हुए हिन्दू समाज का राष्ट्रहित में एकत्रीकरण का विचार सूझा। इसे आगे चलकर 1925 में उन्हेांने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना के माध्यम से साकार किया। वास्तव में देखे तो स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान हिन्दू समाज कांग्रेस के लिए केवल उपयोग भर का समूह था। मानो वह केवल मुसलमानों के हित साधने हेतु साधनभर हो। इसे डॉक्टर हेडगेवार जी द्वारा देखी प्रत्यक्ष घटना से समझा जा सकता है। 

कहते हैं, कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में एक बार गौरक्षा को राष्ट्रीय प्रश्न बनाने सम्बन्धी प्रस्ताव लाया गया था। लेकिन तब यह कहते हुए प्रस्ताव ख़ारिज़ कर दिया गया कि “इससे मुसलमानों की भावनाएँ आहत होंगी। अत: यह प्रश्न कांग्रेस नहीं ले सकती।” उस दौरान इस मसले पर थोड़ा विवाद भी हुआ तो बताते हैं कि जिन नेता ने यह प्रस्ताव पेश किया था, उन्हें हाथ पकड़ कर अधिवेशन से बाहर निकाल दिया गया था।

एक विचारवान कान्तिकारी युवा निश्चित रूप से ऐसी घटनाओं से उद्वेलित होगा ही। डॉक्टर हेडगेवार भी हुए और फिर  इसी पृष्ठभूमि में उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर आरएसएस (संघ) की स्थापना की। यह संगठन डॉक्टर हेडगेवार के जीवन का स्वप्न है। उन्होंने इसका बीज बोया, जो आज वट वृक्ष के रूप में समाज में अपनी महत्ता और भूमिका का निर्वाह सुचारू रूप से कर रहा है।

डॉक्टर हेडगेवार जी की जयन्ती पर, उनको स्मरण कर, भारतीय समाज और संस्कृति के प्रति उनके अमूल्य योगदान के लिए कृतज्ञता प्रकट करते हुए उन्हें शत-शत नमन। 

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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।) 

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