‘संस्कृत की संस्कृति’ : ‘पाणिनि व्याकरण’ के बारे में विदेशी विशेषज्ञों ने क्या कहा, पढ़िएगा!

अनुज राज पाठक, दिल्ली

आचार्य पाणिनि के बृहद् कार्य पर दृष्टि डालने के क्रम में पुन: भगवान पतंजलि की उक्ति का उल्लेख समीचीन होगा। पतंजलि आचार्य पाणिनि के लिए “अनल्पमति आचार्य” का विशेषण प्रयोग करते हैं। पाणिनि की बुद्धि की समझ और सूझ-बूझ की विशालता इससे दृष्टिगोचर होती है कि वे शब्दों की लगभग असीमित और अपरिमित सामग्री को संचित, व्यवस्थित और सूत्र रूप में प्रस्तुत कर देते हैं।

पाणिनि की यही मेधा भूतकाल से आज तक विद्वानों को प्रभावित कर रही है। इस क्रम में भारतीय ही नहीं, अन्य देशों के विद्वान् भी पाणिनि से प्रभावित हुए। इनमें सबसे पहले चीनी यात्री श्यूआन् चूआङ् सातवीं शताब्दी के शुरू में मध्य एशिया के स्थल मार्ग से भारत आए। भारत में सिन्धु नदी के पास शलातुर नामक स्थान पर ठहरे। वे लिखते हैं, “ये वही जगह है, जहाँ ऋषि पाणिनि का जन्म हुआ, जिन्होंने शब्द-विद्या की रचना की। यहाँ के लोग पाणिनि-शास्त्र के अध्येता हैं। पाणिनि के उदात्त गुणों के कारण यहाँ के लोगों ने उनकी स्मृति में एक मूर्ति की स्थापना की है, जो आज भी विद्यमान है।” श्यूआन् चूआङ् ने भगवान पाणिनि का वर्णन लगभग महाभाष्य के कथन अनुसार ही किया है।

यूरोप में आधुनिक युग में भाषा-विज्ञान के अध्ययन की शुरुआत लगभग 19वीं शताब्दी में हुई। पाश्चात्य विद्वानों ने जब भाषा और ध्वनि पर विचार करना शुरू किया, तब उनकी दृष्टि पाणिनि के ग्रन्थ पर गई। उन्होंने देखा कि आधुनिक भाषाशास्त्री जिस वर्णनात्मक भाषा प्रक्रिया को आज अपनाते हैं, उसे पाणिनि सदियों पहले अपना चुके हैं। इसलिए उन्हें पाणिनीय व्याकरण के योगदान को स्वीकार करना पड़ा। उदाहरण के लिए, अमेरिकी भाषाशास्त्री लियोनार्द ब्लूमफील्ड कहते हैं, “वह देश (भारत) जहाँ ऐसे ज्ञान का उदय हुआ, जो यूरोप के लोगों की भाषा सम्बन्धी विचारधारा में क्रान्तिकारी परिवर्तन उपस्थित करने वाला है…पाणिनि व्याकरण की रचना 350 ईसा पूर्व हुई होगी…यह व्याकरण वस्तुत: मानव ज्ञान का सर्वोत्कृष्ट प्रतीक है…आज तक संसार की किसी भाषा का इतना पूर्ण विवरण उपलब्ध नहीं।” 

ऐसे ही, सन् 1940 में अमेरिकी भाषाविद् बेंजमिन ली व्होर्फ पाणिनि के सम्बन्ध में लिखते हैं, “यद्यपि भाषा-शास्त्र बहुत प्राचीन विज्ञान है, तथापि इसका आधुनिक प्रयोगात्मक रूप, जो अलिखित भाषा के विश्लेषण पर जोर देता है, सर्वथा आधुनिक है। जहाँ तक हमें ज्ञात है, आज के रूप में ही, ईसा से कई शताब्दी पूर्व, पाणिनि ने, उस विज्ञान का शिलान्यास किया था। पाणिनि ने उस युग में वह ज्ञान प्राप्त कर लिया था, जो हमें आज उपलब्ध हुआ। (संस्कृत) भाषा के वर्णन अथवा संस्कृत भाषा को नियमबद्ध करने के लिए पाणिनि के सूत्र बीजगणित के जटिल सूत्रों (फार्मूलो) की भाँति है। ग्रीक लोगों ने वस्तुत: इस विज्ञान (भाषा-शास्त्र) की अधोगति कर रखी थी। इनकी कृतियों से ज्ञात होता है, कि वैज्ञानिक विचारक के रूप में, हिन्दुओं के मुकाबले, ये (ग्रीक) लोग कितने निम्नस्तर के थे।”

हम इन विद्वानों के कथन के मर्म से समझ सकते हैं कि हमने संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन को छोड़ किस अमूल्य निधि को खो दिया है। इसकी कल्पना भी दुखद है। सच कहा जाए तो पाणिनि और उनके बाद में उनकी परम्परा के आचार्य कात्यायन, पतंजलि और भतृहरि ने भाषा, भाषा-विज्ञान और ध्वनि-विज्ञान के क्षेत्र में जो अनुसन्धान किया, उसे लम्बी परम्परा तक बनाए न रख पाना भारत ही नहीं, अपितु संसार के लिए बड़ी क्षति है। 

इतना सब पढ़ने के बाद हमें ग्लानि होने लगती है कि आधुनिक भारत के निर्माताओं ने कैसे अपनी खुद की समृद्ध परम्परा को न अपनाकर देश को ज्ञान के क्षेत्र में पिछड़ा बना दिया। हमारे देश 1947 में स्वतंत्र हुआ और उस समय तक भारत की बौद्धिक धरोहरों के बारे में हम ही नहीं अपितु विश्व परिचित हो चुका था। लेकिन हमने उन ज्ञान की निधियों सहेजा नहीं। यह भारतीय बौद्धिक वर्ग का दुर्भाग्य था।
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।) 
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इस श्रृंखला की पिछली 10 कड़ियाँ 

11- संस्कृत की संस्कृति : पतंजलि ने क्यों कहा कि पाणिनि का शास्त्र महान् और सुविचारित है
10-  संस्कृत की संस्कृति : “संस्कृत व्याकरण मानव मस्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना!”
9- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : आज की संस्कृत पाणिनि तक कैसे पहुँची?
8- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : भाषा और व्याकरण का स्रोत क्या है?
7- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : मिलते-जुलते शब्दों का अर्थ महज उच्चारण भेद से कैसे बदलता है!
6- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : ‘अच्छा पाठक’ और ‘अधम पाठक’ किसे कहा गया है और क्यों?
5- संस्कृत की संस्कृति : वर्ण यानी अक्षर आखिर पैदा कैसे होते हैं, कभी सोचा है? ज़वाब पढ़िए!
4- दूषित वाणी वक्ता का विनाश कर देती है….., समझिए कैसे!
3- ‘शिक्षा’ वेदांग की नाक होती है, और नाक न हो तो?
2- संस्कृत एक तकनीक है, एक पद्धति है, एक प्रक्रिया है…!

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