द्वारिकानाथ पांडेय, कानपुर, उत्तर प्रदेश से
होलिका दहन को अभी चार दिन शेष थे। किन्तु फागुन की फागुआहट ने सबको सराबोर कर लिया था। काशी तो कुछ ज्यादा ही उत्सवी लहक में थी। होती भी क्यों न? अभी कल ही तो मईया गौरा का गौना कराने के पश्चात् काशीनाथ भगवान शंकर पहली बार काशी लौटे हैं। तो उनके स्वागत में काशी को तो खिल ही जाना था।
काशीपति की अगवानी में सभी देव मनुज रूप धर काशी में उपस्थित हुए थे। चार दिन बाद होली थी। लेकिन काशीनाथ के स्वागत में सबने उसी दिन होली मनाना शुरू कर दिया। भक्ति में रंगे भक्तों ने काशी को रंगों से सराबोर कर दिया। खूब रंग गुलाल से महादेव का स्वागत किया गया। भला महादेव भी कैसे अपने भक्तों पर न रीझते। सो, उन्होंने भी सबके साथ मिलकर खूब गुलाल उड़ाया और होली खेली। काशी की गलियों में अबीर गुलाल की खुशबू वाली बयार बह उठी और मिट्टी के कण-कण में रंगो की रंगत उतर आई। दिनभर उल्लास और नाच गाने के बाद सबने जब गंगा में उतरकर अपने रंग छुड़ाए तो गंगा के पानी ने भी अपना रंग बदल दिया था।
मईया गौरा भी अपने ऐसे अलौकिक स्वागत से प्रफुल्लित थीं। लेकिन कल दिनभर के उत्सव के बावजूद आज महादेव को कुछ रिक्तता अनुभव हो रही थी। देव, देवगुरु, देवऋषि, दनुज, दैत्य सब तो थे कल के उत्सव में। फिर यह रिक्तता कैसी? अचानक महादेव के मन में विचार कौंधा। उनके प्रिय भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शंखिनी तो कल के उत्सव में थे ही नहीं। भूतभावन भोलेनाथ का उत्सव भला इनके बिना पूरा हो भी सकता था? महादेव ने तत्क्षण महाश्मसान की ओर प्रस्थान किया।
मनुजों के लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाले मणिकर्णिका घाट में रोज की तरह धूँ-धूँ करके चिताएँ जल रही थीं। चिता से उठने वाला धुआँ आसमान को ढँक रहा था। कल हुए उत्सव के बाद से श्मशानवासियों को बस इस बात का दुःख था कि भोलेनाथ ने उनके बिना उत्सव मना लिया। क्या वे भूल गए कि उनकी शादी में जब कोई देवता दूल्हे का श्रृंगार करने नहीं आया था, तो हम गणों ने ही उनका कितना सुन्दर श्रृंगार किया था।
मसान की शान्ति में इन गणों की शिथिलता और मुर्दनी भर रही थी। तभी गणों ने देखा कि महादेव मणिकर्णिका की सीढ़ियाँ उतर रहे हैं। भूतनाथ को आते देख सभी गण उनके निकट आ गए। हर-हर महादेव की गूँज से सब ने भूतनाथ का स्वागत किया। लेकिन किसी भूत, प्रेत, पिशाच ने भोलेनाथ से अपनी व्यथा व्यक्त नहीं की। गणों के भयानक किन्तु शान्त मुख देख भोलेनाथ समझ गए कि उनके प्रिय गण किस बात को लेकर मन ही मन दु:खी हैं।
गणों के ह्रदय की बात को भाँपते हुए भूतभावन स्वयं ही बोल पड़े, “तुम्हारे बिना भला मैं कोई उत्सव मना सकता हूँ? भूतों के बिना भूतनाथ पूर्ण नहीं हैं। चलो, आज यहीं होली खेलते हैं।” गणों को तो मानो उनकी व्याधि की औषधि मिल गई। बस यही तो चाहते थे सब। “लेकिन बाबा हम इस श्मशान में रंग गुलाल कहाँ से लाएँगे?” एक छोटे गण ने अपनी अधीरता व्यक्त की। भोलेनाथ ने छोटे गण के मुखहीन मुंड पर हाथ फेरा और मुस्कुराते हुए बोले, “यह पार्थिव देहें राम नाम जप के साथ यहाँ आईं हैं। इसलिए इनकी जलती चिताओं की भस्म मेरे लिए प्रभु श्री राम के चरणों की पगधूल है। भला प्रभु की चरणरज से बढ़कर मेरे धारण करने के लिए और क्या हो सकता है? इन्हीं चिताओं भस्म से हम होली खेलेंगे।”
भूतों ने जोर से हर-हर महादेव की हँकार लगाई, तो पूरे श्मशान में जल रहीं चिताओं के आस-पास पिशाच, प्रेत, साँप, बिच्छू, चांडाल सबका जमघट लग गया। वे सब हर-हर, बम-बम का उच्चार करने लगे। महादेव ने अपना दिगम्बर रूप धारण किया और जोर-जोर से डमरू बजाने लगे। डमरू की धुन पर सभी गणों ने नाचना शुरू कर दिया। पास जल रहीं चिताओं से भस्म अपने दोनों हाथों में भरकर गण हवा में उड़ाने लगे। सब गणों ने मिलकर सबसे पहले महादेव का भस्म और भभूत से अभिषेक किया। फिर नाचते हुए गर्म चिताभस्म एक-दूसरे को पोतने लगे।
सर्पों ने अपने विषदन्त कि पिचकारी बनाकर एक-दूसरे पर गरल की वर्षा करनी प्रारम्भ कर दी। पिशाचों ने अधजली चिता के नरमुंडों को निकाला और उसमें चिता भस्म को भर लिया। अवधूत के भक्त गाते-नाचते महादेव के डमरू की ताल पर रौद्र नृत्य करते हुए उत्सव मनाने लगे। महादेव भी अपनी जटा खोल गणों से साथ झूमने लगे। चौंसठ योगिनी खप्पर लेकर डमरू की धुन पर नाचने गाने लगीं। भूतों के हुल्लड़ और चिता की राख ने महाश्मशान को ढँक लिया। जल रहीं चिताओं की लपटें आसमान को छूने लगी। हर-हर, बम-बम का महोच्चार त्रैलोक्य में व्याप्त हो गया।
दिगम्बर महादेव ने अपने सभी गणों के साथ खूब भस्म होली खेली। भूत, प्रेत, पिशाच, नन्दी, भृंगी, श्रृंगी सब चिताभस्म की होली में रंग गए। गौरवर्णी भोलेनाथ को सफेद और काली भभूत के अभिषेक में देखने के लिए देवताओं की भीड़ लग गई। यह दृश्य देखकर देवता, गन्धर्व, किन्नर आदि को भूतों और प्रेतों के सौभाग्य से ईर्ष्या हो रही थी। होनी भी चाहिए। आखिर भगवान भूतभावन को भला अपने भूतों से ज्यादा और कोई प्रिय हो भी तो नहीं सकता।
मसाने में होली के बाद महादेव सभी भूत, प्रेत, पिशाचों को वापस अपने-अपने स्थान पर भेजते हुए बोले कि अब से प्रत्येक वर्ष रंग-एकादशी के एक दिन बाद (जो आज है, 4 मार्च, द्वादसी) वह दिगम्बर रूप से महाश्मशान में चिताभस्म से होरी खेलने जरूर आएँगे। यह सुनकर सभी गणों ने ‘हर-हर महादेव’ का जयकारा लगाया और वापस अपने-अपने स्थान पर लौट गए। उस दिन से आज तक बनारस में हर वर्ष मसाने की भस्म होली की परम्परा है और भगवान भूतभावन प्रत्येक वर्ष भूतों संग होली खेलने बनारस अवश्य आते हैं। हर वर्ष काशीनाथ के गण चिताभस्म में और काशी भक्ति की होली में सराबोर होती है।
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(नोट : द्वारिका नाथ युवा हैं। सुन्दर लिखते हैं। यह लेख उनकी लेखनी का प्रमाण है। मूल रूप से कानपुर के हैं। अभी लखनऊ में रहकर पढ़ रहे हैं। साहित्य, सिनेमा, समाज इनके पसन्दीदा विषय हैं। वह होली पर ऐसे कुछ लेखों की श्रृंखला लिख रहे हैं, जिसे उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी पर प्रकाशित करने की सहमति दी है।)
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