बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से
पुणे के लालमहाल में जिजाऊ साहब और पश्चिमी महाराष्ट्र के पहाड़ी दर्रों में, मावल में, दादाजी पन्त की निगरानी में शिवाजी राजे पल रहे थे। खेल रहे थे। बड़े हो रहे थे। चारों ओर फैला सह्याद्रि राजे के कानों में स्वच्छंद, स्वतंत्र हवा की उत्तेजना फेंक रहा था। बाजी पालसकर, मानकोजी दहातोंडे, बापूजी नर्हेकर आदि बुजुर्ग समशेरबहादुरों की शिक्षा से राजे शस्त्रवीर बनने लगे। अखाड़े की लाल मिट्टी में, घुड़दौड़ के पठारों में, चाँदमारी के मैदानों में तथा खल्बतखाने की बैठक में राजे रमने लगे। हथियारों के इस्तेमाल में वह माहिर हो गए। लालमहाल और मन्दिरों में वह श्रुति, स्मृति, पुराण, महाभारत, रामायण, राजनीति, दण्डनीति, शास्त्र एवं सुभाषितों में खो जाते। मैदानों में घुड़दौड़, बरछी फेंकना, तस्मा चलाना, निशाना लगाना, तेज गति से दौड़ना, दूर तक छलाँग लगाना, दुर्गम पहाड़ों में लुका-छिपी खेलना, यह सब उन्हें खूब अच्छा लगता। कभी-कभी अंकुश लेकर वह हाथी पर जा बैठते। उसे चलाते। उनका दिल और कलाई मजबूत हो रही थी। मावल के लोगों से, वहाँ के पहाड़ों से, दर्रों से, उन्हें बेहद प्यार हो गया था।
राजे सबके साथ प्यार से पेश आते। मोठी बोली बोलते। मोहक हँसी हँसते। उनके बर्ताव में खुलेपन के साथ-साथ मर्यादा का मान भी था। सम्पर्क में आने वाले लोगों को वह याद रखते। फिर से मिलने पर वह उनकी आत्मीयता से पूछताछ करते। इसीलिए वह सब के चहेते थे। हर एक को यही लगता कि राजे उनके करीबी रिश्तेदार हैं। उद्दण्ड, जुल्मी सुल्तानों से डरे मावल के लोग राजे की ममता पर निहाल हो गए। सबके मन एक होने लगे। दादाजी कोंडदेव, सोनो विश्वनाथ डबीर, बालकृष्ण पन्त मजूमदार और जिजाऊसाहब के संग उठने-बैठने से राजे राजनीतिक दाँव- पेंच से परिचित होने लगे। वह जान गए कि सुल्तान की कुटिल नीति के अखाड़े में भोले, सीधे लोग न कभी टिके हैं न टिक सकते हैं। वहाँ विजय मिलती है शकुनि को। धर्मराज को वहाँ मुँह की खानी पड़ती है। इसीलिए वहाँ पूर्ण पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की ही जरूरत है। गरीबों की वफादारी और मेहनती स्वभाव को भी उन्होंने परख रखा था। उनका प्यार ही राजे की शक्ति थी।
दीन-दुखियों को सताने वाले सुल्तानों की, मगरूर सरकारी अधिकारियों की क्रूरता की, दुष्टता की कहानियाँ शिवाजी राजे ने जिजाऊसाहब के मुँह से सुनीं थी। उन दुष्टों को सजा देने के लिए शिवाजी राजे अपनी सामर्थ्य बढ़ा रहे थे। शिवाजी राजे 10 साल के हो गए। उस जमाने में यह शादी की उम्र थी। जिजाऊसाहब ने उनकी शादी पक्की की। लड़की अच्छे स्वभाव की और रूपसी थी। वह पलटन के नाइक निम्बालकर की बेटी थी। नाम था सईबाई। शादी धूमधाम से मनाई गई (दिनांक 16 मई, 1640)। कुछ ही दिनों में राजे बेंगलूर, शहाजी राजे से मिलने चले।
अब तक पुणे जागीर का कायापलट हो गया था। मावल की धरती को, सह्याद्रि को, मानो उष:काल में भविष्य के स्वराज का सुहावना सपना आ रहा था। इस छोटी सी जागीर के लोग स्वराज्य का, सुख का अनुभव ले रहे थे। जिजाऊसाहब, दादाजी पन्त और राजे बेंगलूर आए। शहाजी राजे के मन में प्यार और फख्र के मिले-जुले भाव थे। इस यात्रा में शिवाजी राजे ने देशस्थिति, लोकस्थिति और शाही कार्यवाही को नजदीक से देखा। बीजापुर में जो नजारा देखा, उसे देख उनका मन तड़प उठा। वहाँ उन्हें जान लिया कि स्थिति को सुधारने के लिए सिवा बगावत के अब और कोई रास्ता नहीं है। ठान लिया कि सुल्तान की गुलामी को हटाकर रहेंगे। हमारा राज्य, हमारा झण्डा, हमारी सेनाएँ और हमारी प्रतिष्ठा अब हम खुद बनाएँगे। सद्धर्म, मेहनत, संस्कृति के स्वराज का हम निर्माण करेंगे।
शहाजी राजे को भी एहसास हो गया कि आग का यह दरिया मुट्ठी में बँध नहीं सकेगा। उन्होंने पुणे जाती जिजाऊसाहब और शिवाजी को रुखसत दी। आशीष दिए। दो साल बाद माँ-बेटे पुणे लौटे (ईस्वी सन् 1642)। मावल की दोस्त मंडली पहाड़ों, घाटियों में, मन्दिरों, गुफाओं में स्वराज के सपने सजाने लगी। खेलते समय, सीखते समय, देवताओं के दर्शन करते समय, दिन-रात राजे और उनके छोटे-बड़े साथियों के मन में एक ही बात घुमड़ती। वह थी स्वराज्य की। सुराज्य, सद्धर्मसंस्थापना की।
ज्वालामुखियों की जलती मिट्टी से बना सह्याद्रि हँस उठा। स्वतंत्रता के लाल रंग में रंग जाने को वह कब से उत्सुक था। शिवाजी राजे के इन सपनों में, इस ख्वाहिश में सह्याद्रि का हृदय सम्मिलित था। सह्याद्रि की चोटियों में और तीर्थरूप शहाजी राजे के चरणों में शिवाजी राजे की एक सी भक्ति थी। राजे के भावी रणसंग्राम का सरसेनापतिपद सह्याद्रि ने हृदय से स्वीकारा था। हिन्दवी स्वराज्य की लड़ाई में बुलन्द, बीहड़ सह्याद्रि ने शिवाजी राजे का अच्छा साथ दिया। कभी शिवाजी के मावले सैनिकों की प्राणपण से रक्षा करके तो कभी बादशाहियों के अजस्त्र सेनादल को नाकों चने चबवाकर। —–
(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।)
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ
10- शिवाजी ‘महाराज’ : आदिलशाही फौज ने पुणे को रौंद डाला था, पर अब भाग्य ने करवट ली थी
9- शिवाजी ‘महाराज’ : “करे खाने को मोहताज… कहे तुका, भगवन्! अब तो नींद से जागो”
8- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवबा ने सूरज, सूरज ने शिवबा को देखा…पता नहीं कौन चकाचौंध हुआ
7- शिवाजी ‘महाराज’ : रात के अंधियारे में शिवाजी का जन्म…. क्रान्ति हमेशा अँधेरे से अंकुरित होती है
6- शिवाजी ‘महाराज’ : मन की सनक और सुल्तान ने जिजाऊ साहब का मायका उजाड़ डाला
5- शिवाजी ‘महाराज’ : …जब एक हाथी के कारण रिश्तों में कभी न पटने वाली दरार आ गई
4- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठाओं को ख्याल भी नहीं था कि उनकी बगावत से सल्तनतें ढह जाएँगी
3- शिवाजी ‘महाराज’ : महज पखवाड़े भर की लड़ाई और मराठों का सूरमा राजा, पठाणों का मातहत हुआ
2- शिवाजी ‘महाराज’ : आक्रान्ताओं से पहले….. दुग्धधवल चाँदनी में नहाती थी महाराष्ट्र की राज्यश्री!
1- शिवाजी ‘महाराज’ : किहाँ किहाँ का प्रथम मधुर स्वर….
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