गाने वाली घड़ी की कहानी ‘प्रहर’ का सफ़र, भारत भवन से अब दक्षिण वृन्दावन!

नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश

बीते क़रीब 10 दिन पहले की बात है, फरवरी के पहले ही हफ़्ते की। महज एक सप्ताह से भी कम की अवधि के भीतर मेरे द्वारा अनूदित दूसरी पुस्तक की कुछ प्रतियाँ छपकर घर पर आई थीं। प्रकाशक ने मेरी प्रति के अलावा चार प्रतियाँ अतिरिक्त भेज दी थीं। ज़ाहिर तौर पर अतिरिक्त प्रतियाँ भेजने के पीछे प्रकाशक की मंशा यही होगी कि अगर मैं किसी को उपहारस्वरूप पुस्तक भेंट करना चाहूँ तो कर सकूँ। फिर, यह दूसरी पुस्तक है भी भारत की मौज़ूदा राष्ट्रपति श्रीमति द्रौपदी मुर्मु के बारे में। उनकी पूरी जीवनी है। हालाँकि इस बारे में आगे कभी बात करेंगे। 

अभी प्रसंग दूसरा है। तो उस रोज जब द्रौपदी जी की पुस्तक आई, ताे मैंने उसके बारे में कुछ परिचितों को जानकारी भेजी। ख़ासकर उनको जिन्हें क़िताबों से अब भी प्रेम है। जो इस डिजिटल ज़माने में भी क़िताबों के पन्नों को हाथ से छूकर महसूस करने और पढ़ने में रुचि रखते हैं। उत्तर में सभी की स्वाभाविक रूप से सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली। लेकिन उनमें से चुनिन्दा शब्दों की एक प्रतिक्रिया ऐसी थी, जो आज के प्रसंग के शुरुआत में ही उसका पूरा मज़मून (लेख का विषय) बन गई है। उसमें लिखा था, “दीया कहीं भी रहे, रोशनी देता है।” 

उस दिन भी एक ‘दीया’ भोपाल के ‘भारत भवन’ के अन्तरंग सभागार में मंच पर रखा गया था। तारीख़ दो फरवरी की थी। भोपाल साहित्य उत्सव के तीन दिनी आयोजन का आख़िरी दिन और उसका भी अन्तिम सत्र। रविवार का दिन था और भोपाल में इस रोज अमूमन पूरा शहर ही छुट्‌टी पर होता है। लोग तफ़रीह के लिए निकल जाते हैं। भारत भवन चूँकि शहर की शान ‘बड़ी झील’ के किनारे है, तो वहाँ भी काफ़ी लोग टहल लिया करते हैं। वहाँ कोई आयोजन हुआ तो देख लिया, वरना झील में उतरते साँझ के सूरज का आनन्द तो मिलना तय ही होता है। 

भोपाल के बाशिन्दे तो कम से कम शाम के इस नज़ारे को देखना छुट्‌टी के दिन नहीं ही चूकते। लिहाज़ा, उस दिन भी साहित्य उत्सव के अन्तिम दिवस की आख़िरी शाम को छह बजे के आस-पास ‘भारत भवन’ से भीड़ थोड़ी छँटने लगी थी। लेकिन तभी अन्तरंग से आई एक सुरीली धुन ने बाहर जाते क़दमों को रोक लिया। रोक क्या लिया, उन्हें वापस मोड़ दिया। अन्तरंग में देश के जाने-माने बाँसुरीवादक पंडित प्रवीण गोडखिन्डी ने बाँसुरी पर शाम के राग ‘मधुवन्ती’ का आलाप छेड़ा हुआ था। सभागार का दरवाज़ा पूरा बन्द नहीं था। आधा खुला हुआ था। 

पता नहीं, ऐसा जाने वालों की सुविधा के लिए किया गया था, या आने वालों के सुभीते के लिए। अलबत्ता, उस अधखुले दरवाज़े से ‘मधुवन्ती’ के सुर बाहर क्या निकले, वे बाहर जाते लोगों को मानो हाथ पकड़कर भीतर ले आए। जो सभागार कुछ देर पहले तक खाली सा लग रहा था, वह देखते-ही-देखते खचाखच भर गया। वहाँ बैठने की जगह कम पड़ने लगी। यक़ीनी तौर पर, पहले-पहल ये तमाम लोग बाँसुरी सुनने की गरज से ही वहाँ लौटकर आए थे। लेकिन जैसे ही वे पहुँचे, उनके सामने वह ‘दीया’ रोशन किया गया, जिसके लिए ‘मधुवन्ती’ उन्हें खींच लाया था। 

वह दीया था ‘प्रहर’ के नाम से लिखे गए उपन्यास का। ‘प्रहर’ – कहानी आठ प्रहर का राग संगीत गाने वाली घड़ी की, इस उपन्यास का पूरा नाम है। इस उपन्यास के बारे में क्या बताया गया? बस थोड़े में अधिक समझिए कि अगर किसी को शब्दों में शहद की सी मिठास चखनी हो और लाइनों में लय महसूस करनी हो, तो उसे यह उपन्यास ज़रूर पढ़ना चाहिए। किसी को हिन्दुस्तानी राग संगीत की ताक़त का अनुभव करना हो, कहानी पढ़ते-पढ़ते उसके असर को अपने सामने घटते हुए देखना हो, तो उसको भी यह उपन्यास अवश्य पढ़ना चाहिए। 

किसी को होम्योपैथी की छोटी-छोटी मीठी गोलियों की मिठास और उनके असर के बीच फ़र्क जानने की इच्छा हो, तो वह भी इस उपन्यास के पन्नों में गोते लगा सकता है। हममें से बहुत सारे लोगों ने जीवन के किसी न किसी कालखंड में होम्योपैथी की मीठी गोलियों की मिठास का स्वाद ज़रूर लिया होगा। इन गोलियों के बारे में यह भी सुना होगा कि अगर कोई बच्चा तक अनजाने में, इन्हें जीभ पर रख ले, तब भी ख़ास चिन्ता की बात नहीं होती। क्योंकि इन गोलियों से कोई नुक़सान नहीं होता। इसलिए अगर ‘बच्चा’ इसकी मिठास से खुश है, तो होने देते हैं।

लेकिन हम अबोध ‘बच्चे’ नहीं हैं। हम जानते हैं कि होम्योपैथी एक अदद चिकित्सा पद्धति है और उसकी मीठी गोलियाँ बीमारी का उपचार करती हैं। मगर कैसे? जब हम उनसे जुड़े नियम-क़ायदे मानें। इनके जरिए उपचार के लिए जो पद्धति, जो अनुशासन, जो एहतियात, और लक्षणों, आदि की जो स्पष्टता निर्धारित है, उस सबको बिना शक़, अपनाएँ। साथ ही उस अवधि के पूरे होने तक धैर्य और संयम रखें, जब तक कि गोलियाँ अपना असर न दिखा दें। अन्यथा मीठी गोलियों की मिठास का आनन्द ही हमारे हिस्से आएगा। उनका लाभ नहीं मिलेगा। 

यह थी इस उपन्यासरूपी दीये से निकलने वाले प्रकाश की पहली और सबसे अहम किरण। यह उपन्यास पाठकों को बताता है कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में होम्योपैथी की मीठी गोलियों जैसी मिठास तो है ही। महज मनोरंजन के लिए यह मिठास भी पर्याप्त है। लेकिन इसके आगे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में उपचार और बीमार तथा बीमारियों को ठीक करने के गुण भी मौज़ूद हैं। उन गुणों तक, उस सारतत्त्व तक हम सब पहुँच सकते हैं। बशर्ते, कुछ विशिष्ट परिस्थितियों को सुनिश्चित किया जाए। समय, संयम और साधना की शर्तों का पालन हो जाए।

अब तक भारत भवन के सभागार में बैठे लोग मंत्रमुग्ध से हो चुके थे। हालाँकि बाँसुरी की धुन पर राग-संगीत के असर को सामने महसूस करने की उनकी ख़्वाहिश क़ायम थी। लिहाज़ा, उनकी ख़्वाहिश पूरी करने की गरज से प्रणीण जी की बाँसुरी से फिर ‘यमन’ उतरा। कहते हैं इस राग को किसी ज़माने में ‘अमन’ या ‘नमन’ भी कहा जाता था। ‘अमन’ मतलब शान्ति और ‘नमन’ यानि प्रार्थना के लिए झुकना। अपने इन दोनों ही भावों से महज थोड़े से समय में पूरे सभागार को भिगो गया प्रवीण जी का ‘यमन’। इसके बाद फिर क़िताब पर चर्चा आगे बढ़ी।  

अबकी बार इस उपन्यासरूपी दीये के प्रकाश की कुछ और छटाएँ बिखरीं, सीधे जीवन के अहम सबकों के तौर पर। कहानी का एक किरदार ‘ऑटो जोशी’ का ज़िक्र आया। वह ‘सांगीतिक हुनर’ से संगीत जगत में दख़ल बनाना चाहता है, मगर कहीं कमी रह जाती है। तो वह संगीत जगत की ‘सेवा का हुनर’ चुन लेता है और बताता है कि अगर इरादे नेक हों तो रास्ते बन्द नहीं होते। ऐसे ही ‘ज़मीर’ है। बेहद सीमित संसाधन, सीमित कौशल, सीमित समझ पर असीमित आत्मबल वाला शख्स। वह अद्वितीय उपलब्धि तक पहुँचने के जज्बे की मिसाल रखता है। 

एक प्रमुख किरदार है, ‘आनन्द’। वह बताता है कि धैर्य और संयम की पराकाष्ठा क्या हो सकती है। लेकिन इसके साथ में यह भी कि कब, किस मौक़े पर चुप नहीं बैठे रहना है, बोल देना है, कुछ कर गुजरना है। इसी तरह, डॉक्टर मनोहर भी हैं। वह बताते हैं कि मीठी गोलियों (संगीत) का स्वाद एक बार जीभ पर लग जाने के बाद उनका अधिकतम निचोड़ कैसे हासिल किया जा सकता है। ऐसे तमाम किरदारों के बीच मुख्य किरदार हैं, पंडित शारदा प्रसाद रामदुर्गी। उपन्यास का चर्मोत्कर्ष उन्हीं के साथ घटने वाली एक अनापेक्षित घटना पर जाकर ठहरा है।

अलबत्ता, भारत भवन की उस शाम का चर्मोत्कर्ष अभी बाकी था। इस मर्तबा आयोजक भी अपना लोभ संवरण नहीं कर सके। उन्होंने प्रवीण जी से ‘पहाड़ी’ सुनने की इच्छा जताई। दर्शकों से भी पूरा समर्थन मिला। तो, इसके बाद प्रवीण जी की छोटी सी बाँसुरी से पहाड़ से बड़े विस्तार वाला ‘पहाड़ी’ उतरने लगा। उसकी अपनी विशिष्टता के साथ कभी पपीहरे की पिहू तो कभी कोयल की कुहू। कभी पक्षियों का कलरव तो कभी वृक्षों का वृन्दगान। ये सब पहाड़ों से ‘पहाड़ी’ अपने साथ लाया और कुछ देर में ही ‘अन्तरंग’ को ‘गिरि-कन्दरा’ में बदल गया। 

अन्त में विदा लेने से पहले ‘प्रहर’ उपन्यासरूपी दीये से भी उसके चरम पर जाकर प्रकाश बाहर आया। बताया गया कि इसकी कहानी के मुख्य किरदार पंडित शारदा प्रसाद रामदुर्गी का व्यक्तित्त्व, उनका चरित्र कई मायनों में विलक्षण है। उनसे सीखा जा सकता है कि कोई अपने हुनर और जूनून की गहराई किस हद तक नाप सकता है! कोई अपने आदर्शों और सिद्धान्तों में कैसे जान फूँक सकता है! कोई अपनी ज़िद को ज़िन्दादिली से कैसे ‘साकार’ कर सकता है! मगर फिर उसी उपलब्धि के मोहजाल में किस तरह उलझ सकता है, छटपटा सकता है! यह उलझाव, यह छटपटाहट कैसे बड़े से बड़े व्यक्ति को भी तब मैदान छोड़ जाने के लिए मजबूर कर सकती है, जब उसकी उपलब्धि अगली छलाँग लगाने के मुहाने पर खड़ी होती है। अद्भुत विरोधाभास है न? पर जो है, यही है।

भारत भवन की उस शाम के साक्षी बने लोग आज भी उस ‘दीये’ की रोशनी से सराबोर हैं। उनके घरों की अलमारियों में यह पुस्तक अलग ही चमक रही है। इसके हर पन्ने पर बिखरे मोती उन लोगों ने समेट लिए हैं। और इसके बाद अब यही सब बेंगलुरू के लोग भी करने वाले हैं, 16 फरवरी को पूरे दिन। भारत भवन में रोशनी बिखेरने वाला ‘दीया’ अब ‘दक्षिण वृन्दावन’ (संगीत सम्मेलन) पहुँच गया है। “दीया कहीं भी रहे, रोशनी देता है।

सोशल मीडिया पर शेयर करें
Neelesh Dwivedi

Recent Posts

भारत को भी अब शिद्दत से ‘अपना भारतीय एलन मस्क’ चाहिए, है कोई?

अमेरिका में ट्रम्प प्रशासन ने जिस तेजी से ‘डीप स्टेट’ (जनतांत्रिक नीतियों में हेरफेर करने… Read More

4 hours ago

जयन्ती : गुरु गोलवलकर मानते थे- केवल हिन्दू ही पन्थनिरपेक्ष हो सकता है!

बात साल 1973 की है, राँची की। कार्यकर्ताओं के मध्य बैठक में अपने भाषण में… Read More

1 day ago

अब कोई ओटीपी देता नहीं, इसलिए बदमाश छीन लेते हैं, 12-13 तरीक़े हैं इसके, देखिए!

नीचे दिए गए वीडियो में बहुत ज़रूरी जानकारी है। वर्तमान डिजिटल दौर में हर व्यक्ति… Read More

2 days ago

इस देश को ‘दुनिया का सबसे बड़ा भीड़-तंत्र’ बनने से बचाइए ‘सरकार’, बचाइए!

पिछले साल आठ नवम्बर को बेंगलुरू के सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन संस्थान के जनसंख्या शोध… Read More

3 days ago

कला में कलाकार अपनी ‘जीवन-ज्योति’ डालता है, कोई मशीनी-बुद्धि यह कैसे करेगी?

दो वाक़िये बताता हूँ। पहला- अपने अनुभव का। यह कोई 20 बरस पहले की बात… Read More

4 days ago

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह ‘नवजागरण’ बड़ा तकलीफदेह था!

# नवीनीकरण # हर बार जब हम कोई शिकार करते, तो वह दिल से हमारा… Read More

6 days ago