कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 21/9/2021

बुद्ध बड़े मनोवैज्ञानिक व्यक्ति हैं। उन्होंने मनुष्य के मन को समझा और पाया कि मनुष्य हर समय पाप-पुण्य के फेर में पड़ा रहता है। इसलिए उन्होंने अंत:करण शुद्धि पर पूरा जोर दिया।  इस अंत:करण शुद्धि के लिए बुद्ध नैतिक आचरण की उदात्तता के पालन का उपदेश देते हैं।  

“यस्य कायेन वाचाय मनसा नत्थि दुक्कतं 
संवुतं तिहि ढानेहि तमहं ब्रूमि  ब्राह्मणम् ।। (धम्म 26/9) 
अर्थात् : जो मन, वचन और वाणी से पाप नहीं करता। जो इन स्थानों में संयम रखता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। यानि ब्राह्मण होने की कसौटी पहले पापरहित होना है। और पापरहित होना अंत:करण की पवित्रता के बिना सम्भव नहीं। 

बुद्ध से जब भी कोई पूछता, “ईश्वर है?”, तो वे इस प्रश्न को उपहास में उड़ा देते हैं। या फिर मौन हो जाते हैं। बुद्ध जानते हैं कि ‘ईश्वर हैं, या नहीं’ पूछने वाला व्यक्ति पात्रता नहीं रखता। अत: उसे कैसे ईश्वर के बारे में बताऊँ। 

इसे ऐसे भी समझा जा सकता है..   
एक धनी व्यापारी ने किसी महात्मा से दीक्षा देने का अनुरोध किया। महात्मा ने बात टालने का प्रयत्न किया। किन्तु व्यापारी ने पाँव पकड़ लिए। तब महात्मा ने वचन दिया कि मैं कुछ समय बाद वापस आऊँगा और तुम्हें दीक्षा दूँगा। वचन देकर महात्माजी चले गए। लम्बा समय बीतने के बाद महात्माजी उन व्यापारी के द्वार पर आए और भिक्षाम् देहि! की आवाज़ लगाईं। व्यापारी ने स्वर पहचान लिया और एक से बढ़कर एक पकवानों से थाली सजाकर ले आए। उन्हें आशा थी कि महात्माजी इस बार मुझे दीक्षा अवश्य देंगे। महात्मा ने अपना कमंडलु आगे करते हुए कहा, “सारा भोजन इसी में डाल दो।” व्यापारी उन पकवानों को ज्यों ही डालने लगे तो उन्हें कमंडलु में कूड़ा-करकट आदि बहुत सारी गन्दगी भरी हुई दिखी। उन्होंने महात्मा से कहा, “आपका कमंडलु तो बहुत ही गन्दा है। उसमें ये पकवान डाले तो खाने योग्य भी नहीं रहेंगे।”  महात्माजी ने तुरन्त उत्तर दिया, ‘कमंडलु की गन्दगी से जिस प्रकार भोजन अशुद्ध हो जाएगा, उसी प्रकार विषय-विकारों से मलिन तुम्हारे अंत:करण में मेरे द्वारा दी हुई दीक्षा भी अशुद्ध हो जाएगी। उसका कोई फल नहीं मिलेगा।” व्यापारी बुद्धिमान थे। वह महात्माजी का आशय समझ गए। उन्होंने महात्माजी को प्रणाम किया और बोले, “अब मैं अपने अंत:करण को शुद्ध करूँगा। अर्थात् पहले पात्रता अर्जित करूँगा, तब दीक्षा की इच्छा!” 

जब अंत:करण शुद्ध एवं निर्मल होता है, तब ही व्यक्ति पवित्र ज्ञान प्राप्त कर सकता है। पापरहित जीवन व्यतीत कर सकता है। ऐसे व्यक्ति के लिए ईश्वर का प्रश्न मूल्यहीन हो जाता है। सम्भवत: इसी विचार से बुद्ध ईश्वर का निषेध करते रहे। 

कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ। हम सब पाप करें, फिर ईश्वर से क्षमा माँग लें। फिर पाप करें, फिर क्षमा माँग लें। ऐसे खेल से अच्छा यही कहना है कि ईश्वर नहीं है। हम अपने पापों का दंड अवश्य भुगतेंगे। क्षमा का विकल्प नहीं। इसलिए पहले शुद्ध होना है। अपने हृदय को पवित्र करना है। न जाने हम अपने मन में, हृदय में कितने अहम् और वहम् लिए गली-गली ईश्वर खोजते फिर रहे हैं। कैसे मिलेगा? जो खाली हो जाएँ और हृदय में देख लें, वहीं तो ईश्वर है।

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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 29वीं कड़ी है।)
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां ये रहीं…

28वीं कड़ी : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27वीं कड़ी : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26वीं कड़ी : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25वीं कड़ी : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24वीं कड़ी : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23वीं कड़ी : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22वीं कड़ी : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21वीं कड़ी : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20वीं कड़ी : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19वीं कड़ी : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18वीं कड़ी : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17वीं कड़ी : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16वीं कड़ी : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15वीं कड़ी : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14वीं कड़ी : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13वीं कड़ी : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12वीं कड़ी : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11वीं कड़ी : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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