शिवाजी ‘महाराज’ : “दगाबाज लोग दगा करने से पहले बहुत ज्यादा मुहब्बत जताते हैं”

बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से

शिवाजी राजे के कारनामों की खबरें बीजापुर पहुँच गई। यह नेक काम किया सुभानमंगल किले के किलेदार मियाँ रहीम अहमद ने। बगावत की खबरें सुनकर बीजापुर दंग रह गया। पहले पहल सुल्तान आदिलशाह को यकीन ही नहीं आया। एक कल का छोकरा इतनी बड़ी आदिलशाही से टक्कर लेने की हिम्मत करेगा? शायद गलत खबर है। कहीं तितलियाँ भी मुलुखमैदान तोप से लोहा लेने की जुर्रत करेंगी? फिर भी सावधानी के तौर पर सुल्तान ने बागियों को डपट भरे फरमान भेजे। मगर कोई फायदा नहीं हुआ। शिवाजी राजे पहाड़ की भाँति डटकर खड़े थे। यही सोचकर कि हिन्दवी स्वराज्य तो होकर रहेगा। राज्य हो, यह भगवान की इच्छा है।

पर शुरू में ही बदकिस्मती आड़े आई। दादाजी पन्त का बुढ़ापे के कारण देहान्त हो गया। वृद्ध पन्त राजनीति और कूटनीति में कुशल थे। अनुशासन के पाबन्द, धुन के पक्के। ममतालु और उत्साही भी। उनके गुजर जाने से राजे महत्त्वपूर्ण सहारा गँवा बैठे (दिनाँक 7 मार्च, 1657)। स्वराज्य प्राप्ति की जिम्मेदारी अब राजे पर थी।

कुछ ही दिनों में राजे ने कोंढाना किले को तरफ उँगली उठाई। कोंढाना जीतने का काम उन्होंने बापूजी मुद्गल देशपांडे को सौंपा। किले का शाही किलेदार था सिद्दी अम्बर। बिना खूनखराबे के, षड्यंत्र के सहारे बापूजी ने किला जीत लिया। इसके तुरन्त बाद राजे ने झपट्टा मारा शिरवल के सुभानमंगल किले पर। फतह उन्हीं की हुई। मियाँ रहीम अहमद हाथ मलते हुए बीजापुर चला गया।

इतने में जावली के दौलतराव चन्द्रराव मोरे अचानक चल बसे। मोरे बीजापुर दरबार के बादशाही सरदार थे। उनके बेटा नहीं था। उस वक्त बिना दरबार से मशवरा किए शिवाजी राजे ने मोरे की विधवा की गोद में यशवन्तराव मोरे को दत्तक दिया। उसे जावली का उत्तराधिकारी “चन्द्रराव” बनाया। इन सारी बातों से बादशाह हैरान था। समझ गया कि चिंगारी अब आग बन गई है। उसे बुझाने की गरज से उसने एक अनोखा दाँव खेला। यह था शहाजी राजे की गिरफ्तारी का।

राजे भगीरथ प्रयत्नों में लगे हुए थे। लेकिन एक काली विपदा उनकी तरफ दबे पाँव चली आ रही थी। शहाजी राजे की प्रतापी तलवार आदिलशाही की जी-जान से रक्षा कर रही थी। लगातार तीन साल से वह निजामशाह से लड़ रही थी। दिल्ली की मुगली फौज से लोहा ले रही थी। लेकिन वफादार सरदारों को सजा देना, बादशाही राजनीति की रीति ही थी। और फिर उद्दण्ड शिवा को रास्ते पर लाने के लिए उसके पिता को दण्ड देने में कोई बुराई नहीं थी।

शहाजी राजे को दक्षिण में लोग बहुत मानते थे। लेकिन दो सरदार- अफजल खान और लहमाजी ज्योति अक्सर सुल्तान के कान में फूँकते कि शहाजी कामचोर है। गद्दार है। धीरे-धीरे बीजापुर दरबार भोसले पिता-पुत्र के खिलाफ हो गया। बादशाह ने शहाजी राजे को धोखा देकर चुपचाप गिरफ्तार करने का दाँव रचा। उसने सोचा कि शहाजी राजे को चंगुल में फँसा लेने से बागी शिवाजी दया की भीख माँगने लगेगा।

आदिलशाह को यकीन था कि पिता की जिन्दगी के लिए बेटे को बिना शर्त शरण में आना ही पड़ेगा। पाँसे गोपनीयता से फेंके जाने वाले थे। इसकी जिम्मेदारी वजीर-ए-आजम मुस्तफा खान को सौंपी गई। इस वजीर को भोसले से सख्त नफरत थी। वह 15,000 की फौज के साथ बीजापुर से जिंजी रवाना हुआ (दि. 17 जनवरी, 1648)। इस समय शहाजी राजे फौज के साथ जिंजी के पास छावनी में थे। वेंकट नाइक से जिंजी का किला जीतने की मुहिम जल्द ही शुरू होने वाली थी। राजे ने सोचा कि वजीर इस मुहिम में उनकी मदद करने आया है।

मुस्तफा खान आया। शहाजी उससे अच्छी तरह वाकिफ थे। इसीलिए सचेत भी थे। खान और शहाजी की मुलाकात हुई। खान के मन में चोर बैठा था। लेकिन शहाजी चौकन्ने थे। उन पर जाल डालने का मौका ही उसे नहीं मिल रहा था। मीठी-मीठी बातों से, कीमती तोहफों से, शहाजी के मन में अपने प्रति विश्वास पैदा कर उसने उन्हें गाफिल करना चाहा। इसी तरह कुछ महीने बीते। मगर शहाजी अब भी सावधान थे। एक बार हँसी-हँसी में उन्होंने कहा भी “दगाबाज लोग दगा करने से पहले बहुत ज्यादा मुहब्बत जताते हैं।” 

सुनकर चौक ही तो पड़ा खान। क्षणमात्र अकबकाया। फिर खुद को सँभालकर बोला, “शहाजी, मेरे प्यारे, आतिब खान की सौगन्ध। मुझसे आपको कोई खतरा नहीं।” खान ने बेटे की कसम खाई थी। शहाजी ने उसकी बातों का यकीन कर लिया। बेखबर हो गए। इतिहास को भूल गए और उसी रात खान के हुक्म पर बाजी घोरपड़े ने शहाजी के खेमे पर छापा मारा। घायल होकर शहाजी बेहोश हो गए। बाजी ने उनके हाथों में हथकड़ी डाल दी।

शूर शेर को चालबाज गीदड़ों ने गिरफ्तार किया था। शेर शूर तो था लेकिन गीदड़ों के पास अपार दुष्ट शक्ति थी। शहाजी राजे के तन-मन में आग लगी थी। दगाबाज मुस्तफा खान और बाजी घोरपड़े को वह सबक सिखाना चाहते थे। लेकिन हाथ-पाँव बेड़ियों में जकड़े हुए थे। मन जानता था कि बादशाह की निगाह से गिरे सरदार का घर-बार आग से घिरी घास-फूस की झोपड़ी से कम नहीं होता।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।) 
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ 
12- शिवाजी ‘महाराज’ : सह्याद्रि के कन्धों पर बसे किले ललकार रहे थे, “उठो बगावत करो” और…
11- शिवाजी ‘महाराज’ : दुष्टों को सजा देने के लिए शिवाजी राजे अपनी सामर्थ्य बढ़ा रहे थे
10- शिवाजी ‘महाराज’ : आदिलशाही फौज ने पुणे को रौंद डाला था, पर अब भाग्य ने करवट ली थी
9- शिवाजी ‘महाराज’ : “करे खाने को मोहताज… कहे तुका, भगवन्! अब तो नींद से जागो”
8- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवबा ने सूरज, सूरज ने शिवबा को देखा…पता नहीं कौन चकाचौंध हुआ
7- शिवाजी ‘महाराज’ : रात के अंधियारे में शिवाजी का जन्म…. क्रान्ति हमेशा अँधेरे से अंकुरित होती है
6- शिवाजी ‘महाराज’ : मन की सनक और सुल्तान ने जिजाऊ साहब का मायका उजाड़ डाला
5- शिवाजी ‘महाराज’ : …जब एक हाथी के कारण रिश्तों में कभी न पटने वाली दरार आ गई
4- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठाओं को ख्याल भी नहीं था कि उनकी बगावत से सल्तनतें ढह जाएँगी
3- शिवाजी ‘महाराज’ : महज पखवाड़े भर की लड़ाई और मराठों का सूरमा राजा, पठाणों का मातहत हुआ
2- शिवाजी ‘महाराज’ : आक्रान्ताओं से पहले….. दुग्धधवल चाँदनी में नहाती थी महाराष्ट्र की राज्यश्री!
1- शिवाजी ‘महाराज’ : किहाँ किहाँ का प्रथम मधुर स्वर….

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Neelesh Dwivedi

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