वीर सावरकर : मुझे मार सके, भला ऐसा कौन शत्रु पैदा हुआ है इस जगत में!

अनुज राज पाठक, दिल्ली

विनायक दामोदर सावरकर। लोकप्रिय नाम, ‘वीर सावरकर’ या स्वातंत्र्य वीर सावरकर’। भारतीय राजनीति के ऐसे उच्च व्यक्तित्त्व, जिनके हम साथ हो सकते हैं। उनके विरोध में भी हो सकते हैं। लेकिन हम उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। और उनकी उपेक्षा तो कभी भी नहीं कर सकते। इसका कारण है। वास्तव में कुछ लोग अपनी स्पष्टता और कार्यशैली से इतने प्रखर होते हैं कि उनका साथ और उनका विरोध दोनों दुविधा पैदा करता है। हम उन्हें अपनाएँ तो कट्टरपन्थी होने का तमगा लगता है। विरोध करें तो कहीं, कभी ख़ुद से ही ग्लानि होने लगती है। और जैसा पहले कहा कि उन्हें अनदेखा तो किया ही नहीं जा सकता। तो फिर करें क्या? मेरे ख़्याल से इसका ज़वाब यह हो सकता है कि ऐसे हर व्यक्तित्त्व के अस्तित्त्व को उसकी पूर्णता के साथ स्वीकार करना चाहिए। मान्यता देनी चाहिए और उनके व्यक्तित्त्व तथा कार्यों से जब, जो भी ले सकें, ले लेना चाहिए। सीखना चाहिए। सो, आज वीर सावरकर की जयन्ती (28 मई 1883) पर हम उनके जीवन और कर्मों से जुड़े दो प्रसंगों के माध्यम से यही कोशिश करते हैं।

पहला प्रसंग यह बताने के लिए कि उनके विचारों में कितनी स्पष्टता थी और कार्यशैली कितनी प्रखर। इस स्पष्टता और प्रखरता की आँच उनके दौर में महात्मा गाँधी तक ने महसूस की थी। वाक़िआ इन दोनों की पहली मुलाक़ात का है। बात है अक्टूबर 1906 की। लन्दन में कानून की पढ़ाई के दौरान सावरकर ‘इंडिया हाउस’ में रहा करते थे। वहाँ एक बार महात्मा गाँधी उनसे मिलने आए। उस समय महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका में रह रहे थे और वहाँ रहने वाले भारतीय समुदाय को कुछ राहत दिलाने के मकसद से ब्रिटिश हुकूमत के साथ बातचीत करने लंदन गए थे। इसी सिलसिले में उनका ‘इंडिया हाउस’ भी जाना हुआ था। 

‘इंडिया हाउस’ उस वक़्त वीर सावरकर की मौज़ूदगी मात्र से भारत के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी ओजस्वी गतिविधियों का केन्द्र बना हुआ था। गाँधीजी के आकर्षण की वजह शायद यह भी रही हो। तो, गाँधी जब ‘इंडिया हाउस’ पहुँचे तो वहाँ वीर सावरकर झींगा मछली तल रहे थे। भोजन की तैयारी थी। गाँधीजी के लिए यह पहला झटका था। वे जानते थे कि सावरकर ब्राह्मण हैं। इसके बावज़ूद उन्होंने उन्हें झींगे तलते हुए देखा तो उनका मन उखड़ गया। गाँधीजी ठहरे शुद्ध शाकाहारी। फिर भी उन्होंने बातचीत शुरू करने की कोशिश की। लेकिन सावरकर ने उन्हें बीच में ही टोक दिया। कहने लगे, “बापू, पहले भोजन कर लीजिए। बाद में बात कर लेंगे।” 

ज़ाहिर तौर पर गाँधीजी ने भोजन करने से साफ मना कर दिया। तो सावरकर ने उन्हें वहीं टका सा ज़वाब दे दिया, “अगर आप हमारे साथ भोजन नहीं कर सकते तो ज़मीन पर हमारे साथ काम कैसे करेंगे? और यह तो उबली मछली है। जबकि हमें तो ऐसे लोग चाहिए, जो अंग्रेजों को भी ज़िन्दा चबा जाने के लिए हमेशा तैयार हों।” एक पुस्तक है, ‘द आरएसएस-आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट’। जाने-माने पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने लिखी है। उसमें इस मुलाक़ात का उल्लेख है। इस तरह के और भी कई उल्लेख हैं। 

इसके बाद अब दूसरा प्रसंग यह समझने-समझाने के लिए वीर सावरकर अपने लक्ष्यों के प्रति किस हद तक समर्पित थे। यह वाक़िआ अंडमान की सेलुलर जेल से उनकी रिहाई से जुड़ा हुआ है। इस रिहाई के लिए सावरकर ने 1913 और 1920 में दो दया याचिकाएँ लगाई। इसके लिए उन पर आज भी सवाल खड़े किए जाते हैं। जबकि इस मामले को दूसरे नज़रिए से भी देखा जा सकता है। दरअस्ल, अपनी दया याचिकाओं में उन्होंने वचन दिया था कि वे “अंग्रेज सरकार के ख़िलाफ़ कभी किसी राजनैतिक आन्दोलन का हिस्सा नहीं बनेंगे। सेवानिवृत्त और  शान्त जीवन जिएँगे।” इसके बाद ही सरकार ने उन्हें अंडमान जेल से जनवरी 1924 में रिहा किया। हालाँकि मई 1937 तक रत्नागिरि, महाराष्ट्र में सशर्त नज़रबन्दी में रखकर उनकी लगातार निगरानी भी की गई।

लेकन दिलचस्प पहलू देखिए कि इस नज़रबन्दी की पूरी अवधि में भी कभी सावरकर ने ‘सेवानिवृत्त जीवन’ जिया नहीं। उन्होंने स्वयं को राजनैतिक आन्दोलन से दूर ज़रूर किया। मगर सामाजिक और धार्मिक जागरूकता से जुड़े अभियानों में ख़ुद को खपा दिया। उनके ये सामाजिक, धार्मिक जागरूकता अभियान भी उतने ही ओजस्वी हुए, जितने राजनैतिक होते थे। इस तरह उन्होंने जीवन के आखिरी क्षणों तक अनवरत राष्ट्रसेवा जारी रखी। बस, उसके माध्यम बदल दिए। नए माध्यमों से उन्होंने स्वयं को प्रासंगिक बनाकर रखा। अपना जीवन यूँ ही व्यर्थ नहीं जाने दिया। अपने अस्तित्त्व, अपने व्यक्तित्त्व को ख़त्म नहीं होने दिया। इसीलिए तो आज हम तमाम विरोधाभासों के बावज़ूद सावरकर को ‘वीर सावरकर’ और ‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ जैसे विशेषणों से याद करते हैं।

तो अब इस तथ्य को ध्यान में रखकर कुछ प्रश्नों पर विचार करें। यह कि एक व्यक्तित्त्व, जिसने जीवन का एकमात्र लक्ष्य ही देशसेवा को बनाया, उसने उम्रभर जेल में सड़ते रहने के बजाय किसी तरह बाहर आने का रास्ता चुना तो क्या ग़लत किया? उन्हों दो उम्रक़ैद के बराबर सज़ा दी गई थी। इस हिसाब से वह आख़िरी साँस तक कभी बाहर नहीं आने वाले थे। तो सोचकर देखिए कि वे अपने लक्ष्य को कैसे प्राप्त कर सकते थे? नहीं ही कर पाते? इसलिए उन्होंने वह विकल्प चुना, जिससे वे सबसे पहले तो जेल से बाहर निकलें।  

और फिर बाहर आकर उन्होंने वह सब किया, जो वे कर सकते थे। भले प्रत्यक्ष राजनैतिक आन्दोलनों में हिस्सा न लिया हो। लेकिन सामाजिक आन्दोलनों के जरिए जिस चेतना का संचार किया, उसके लिए उन्हें क्या कभी कोई भूल सकेगा? उनके अस्तित्तव, व्यक्तित्त्व या कृतित्त्व को कभी कोई नकार सकेगा? निश्चित रूप से कभी नहीं। लोग उनका विरोध करते हैं, करते रहें। इससे फ़र्क नहीं पड़ता। क्योंकि सावरकर अब व्यक्ति नहीं एक विचार हैं, जिसे आसानी बदला भी नहीं जा सकता। ख़त्म करने की बात तो दूर। 

ख़ुद सावरकर ने अपने जीवनकाल में ही इसकी घोषणा कर दी थी, ‘आत्मबल’ नाम की अपनी कविता के माध्यम से। मराठी भाषा में लिखी इस कविता की शुरुआती पंक्तियों में ही उन्होंने लिखा है… 

“अनादि मी, अनंत मी, अवध्य मी। 
भला मारिल रिपु जगतिं, असा कवण जन्मला।।” 

अर्थात् : मैं अनादि, मैं अनन्त, मैं अवध्य। मुझे मार सके, भला ऐसा कौन शत्रु पैदा हुआ है इस जगत में? 

ग़लत नहीं लिखा था उन्होंने। अंग्रेजों ने कोशिश की थी, उन्हें ख़त्म करने की। लेकिन चतुराई से वे अपने अस्तित्त्व को बचा लाए। आज भी एक बड़ा वर्ग है देश-दुनिया में, जो कोशिश करता है उन्हें इतिहास के अँधेरों में धकेलने की। मगर उनका व्यक्तित्त्व पूरी प्रखरता से ख़ुद को बचाए हुए है।

—— 
(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)

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