बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से
श्री शैवशैल मल्लिकार्जुन के मन्दिर में महाराज तल्लीन हो गए। उनको भावसमाधि लग गई। श्रीशैल में महाराज 10 दिन रहे। हमेशा राजनीति और रणभूमि की धकापेल में व्यस्त रहने वाले महाराज इन 10 दिनों में शान्त, प्रसन्न वातावरण में रम गए। बाद में वह अगली यात्रा के लिए चल दिए। तिरुपति पधारे। श्रीबालाजी के दर्शन कर वह मद्रास के पास पेड़ापोलम आए। उस वक्त जिंजी का किला वहाँ के किलेदार नसीर मुहमद ने बिना लड़े ही मराठों के हवाले कर दिया (सन् 1677 मई 13 के करीब)। महाराज ने इसके बाद विट्ठल पिलदेव अत्रे को जिंजी का सूबेदार बनाया। जिंजी का किला बहुत बड़ा था। महाराज ने रायाजी नलगे को वहाँ का किलेदार तैनात किया।
बाद में महाराज ने वेल्लोर की गढ़ी को घेर लिया। आदिलशाही किलेदार सिद्दी अब्दुल्ला खान बहुत बहादुर और वफादार था। वेल्लोर की गढ़ी की रक्षा के लिए उसने जान की बाजी लगा दी। तब घेरा बरकरार रख महाराज बीजापुर के सरदार, शेरखान पठान से मुकाबला करने चले। तिरुवाड़ी के पास महाराज ने शेरखान को बुरी तरह हरा दिया (सन् 1677 जुलाई 6 से 15)। इसके बाद महाराज एकोजी राजे से मिलने चले। कावेरी के किनारे तिरुमलवाड़ी में उन्होंने खेमे डाले। महाराज से मिलने के लिए एकोजी राजे भी तंजावर से निकले। पाँच कोस पर बाड़ी के पास महाराज थे। वे भी एकोजी की अगवानी के लिए तीन कोस आगे आए। तिरुपतोरा गाँव में एक शिव मन्दिर में दोनों भाइयों की मुलाकात हुई। महाराज भाई एकोजी को प्यार से अपनी छावनी में ले आए।
यहाँ एकोजी राजे सात दिन तक रहे (दिनांक 20 से 27 जुलाई 1677) महाराज ने महसूस किया कि एकोजी राजे के मन में उनके बारे में सन्देह है। उनके विचारों के साथ ताल-मेल बिठाना उन्हें मंजूर नहीं है। यह देख महाराज ने पिता शहाजी राजे की दौलत का आधा हिस्सा उनसे माँग लिया। इसके जवाब में उनके सामने एकोजी ने यही कहा, “आज्ञा प्रमाण”। लेकिन रात में वह चुपके से तंजावर लौट गए। इसके बाद महाराज ने एकोजी राजे के मुल्क में हमला ही चढ़ाया। मुल्क को जीतते हुए वह आगे बढ़ रहे थे। मुहिम का ठीक-ठीक प्रबन्ध कर वह महाराष्ट्र की तरफ लौटने लगे। तभी अहीरी के पास एकोजी राजे और हम्बीर राव मोहिते में मुठभेड़ हो गई। उसमें एकोजी सरासर हार गए। सिर पर पाँव रखकर भाग खड़े हुए। तब महाराज ने आदेश भेजकर लड़ाई बन्द करा दी।
अपने ही अपनों से लड़े, इस बात का महाराज को दुःख था। उन्होंने एकोजी राजे को एक विस्तृत पत्र भेजा। लिखा था, “आपने दुर्योधन जैसी बुद्धि से युद्ध किया। अपने ही लोगों को मरवाया। यह बात ठीक नहीं। खैर, इसके बाद ऐसा कभी न कीजिए।” इसके बाद जिंजी के पास का सात लाख आय वाला प्रदेश महाराज ने एकोजी राजे को ही प्यार की सौगात के रूप में दे दिया। एकोजी की पत्नी चिरंजीव सौभाग्यशालिनी दिपाऊ साहब को आशीष के तौर पर बेंगलुरू, होसकोटे और शिरे के प्रान्त दिए। एकोजी को समझाते हुए एक उपदेश, पर अच्छा पत्र भी लिखा।
इसके बाद महाराज रायगढ़ पर पौने साल बाद आए (जून 1678)। पहुँचते ही वेल्लोर का किला स्वराज्य में आने की खबर महाराज को मिली (दिनांक 22 जुलाई 1678 को)। महाराज की दक्षिण मुहिम बहुत कामयाब सिद्ध हुई। सिर्फ एकोजी राजे का दिल महाराज जीत न पाए। फिर भी कई दिन तक रायगढ़ में दक्षिण दिग्विजय की धूम रही। हालाँकि नियति महाराज के पक्ष में एक बहुत बड़ा अपयश भी बाँधने वाली थी। महाराज की महारानी सोयराबाई साहब और सम्भाजी राजे में अनबन थी। युवराज को वह सौतेला बेटा ही समझती थी। उनके साथ रुखाई से पेश आती थीं। इससे युवराज काफी उखड़े रहते थे।
अण्णाजी दत्तो सचिव भी युवराज के विरोध में थे। जब-तब उनके बारे में तिल का ताड़ बना देते थे। इस घरेलू विवाद के कारण महाराज अजीब कशमकश में फँस जाते। दक्षिण जाते समय महाराज ने सम्भाजी राजे को श्रृंगारपुर तथा सोयराबाई साहब को रायगढ़ पर रखा हुआ था। फिर भी सौतेले माँ-बेटे में तनातनी ही थी। अक्सर दोनों ही विवेक खो बैठते थे। इस पारिवारिक मर्ज का कोई इलाज नहीं था। तब महाराज ने सम्भाजी राजे को सज्जनगढ़ पर रामदास स्वामी के पास भेज दिया। इस बात से सम्भाजी राजे बहुत ही ज्यादा नाराज हो गए। वह कृष्णास्नान को आए। वहीं से सीधे मुगल सरदार दिलेर खान पठान से मिलने चल दिए, (दिनांक 13 दिसम्बर 1678)।
स्वराज के युवराज, महाराज और स्वराज्य के जानी दुश्मन के खेमे में आदाब बजाने पहूँच गए। सूरज की किरण अन्धेरे के पक्ष में चली गई। गद्दारी हुई। खबर से महाराज हतप्रभ रह गए। कैसी घोर यातना। कैसा मर्मान्तक वार। उनके कलेजे को ही मानो साँप ने डस लिया। महाराज ने सम्भाजी को बीच से लौटा लाने के लिए आदमी भेजे। लेकिन अब देर हो चुकी थी। दिलेर खान खुश हो गया। पर क्या युवराज सम्भाजी राजे सचमुच ही ‘स्वराज्यद्रोही गद्दार’ थे? नहीं। यह बात नहीं थी। बिल्कुल ही नहीं थी। वह घरेलू उलझनों से तंग आ चुके थे। बेहद उकता गए थे और महज उससे छुटकारा पाने के लिए, नासमझी से वह यह भूल कर बैठे थे। लेकिन इस अविवेक का परिणाम अटल था। भयावह था। वह तो सबको भुगतना ही था। उससे किसी को भी छुटकारा नहीं था।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।)
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ
55- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी ने जब गोलकोंडा के बादशाह से हाथ मिलाया, गले मिले
54- शिवाजी ‘महाराज’ : परधर्मो भयावहः, स्वधर्मे निधनं श्रेयः…अपने धर्म में मृत्यु श्रेष्ठ है
53- शिवाजी ‘महाराज’ : तभी वह क्षण आया, घटिकापात्र डूब गया, जिजाऊ साहब चल बसीं
52- शिवाजी ‘महाराज’ : अग्नि को मुट्ठी में भींचा जा सकता है, तो ही शिवाजी को जीता जा सकता है
51- शिवाजी ‘महाराज’ : राजा भए शिव छत्रपति, झुक गई गर्वीली गर्दन
50- शिवाजी ‘महाराज’ : सिंहासनाधीश्वर, क्षत्रियकुलावतंस महाराज शिवछत्रपति
49- शिवाजी ‘महाराज’ : पहले की शादियाँ जनेऊ संस्कार से पहले की थीं, अतः वे नामंजूर हो गईं
48- शिवाजी ‘महाराज’ : रायगढ़ सज-धज कर शिवराज्याभिषेक की प्रतीक्षा कर रहा था
47-शिवाजी ‘महाराज’ : महाराष्ट्र का इन्द्रप्रस्थ साकार हो रहा था, महाराज स्वराज्य में मगन थे
46- शिवाजी ‘महाराज’ : राज्याभिषिक्त हों, सिंहानस्थ हों शिवबा
45- शिवाजी ‘महाराज’ : शिव-समर्थ भेंट हो गई, दो शिव-सागर एकरूप हुए
44- शिवाजी ‘महाराज’ : दुःख से अकुलाकर महाराज बोले, ‘गढ़ आया, सिंह चला गया’
43- शिवाजी ‘महाराज’ : राजगढ़ में बैठे महाराज उछल पड़े, “मेरे सिंहों ने कोंढाणा जीत लिया”
42- शिवाजी ‘महाराज’ : तान्हाजीराव मालुसरे बोल उठे, “महाराज, कोंढाणा किले को में जीत लूँगा”
41- शिवाजी ‘महाराज’ : औरंगजेब की जुल्म-जबर्दस्ती खबरें आ रही थीं, महाराज बैचैन थे
40- शिवाजी ‘महाराज’ : जंजीरा का ‘अजेय’ किला मुस्लिम शासकों के कब्जे में कैसे आया?
39- शिवाजी ‘महाराज’ : चकमा शिवाजी राजे ने दिया और उसका बदला बादशाह नेताजी से लिया
38- शिवाजी ‘महाराज’ : कड़े पहरों को लाँघकर महाराज बाहर निकले, शेर मुक्त हो गया
37- शिवाजी ‘महाराज’ : “आप मेरी गर्दन काट दें, पर मैं बादशाह के सामने अब नहीं आऊँगा”
36- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी की दहाड़ से जब औरंगजेब का दरबार दहल गया!
अभी इसी शुक्रवार, 13 दिसम्बर की बात है। केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी लोकसभा… Read More
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सनातन धर्म के नाम पर आजकल अनगनित मनमुखी विचार प्रचलित और प्रचारित हो रहे हैं।… Read More
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इस शीर्षक के दो हिस्सों को एक-दूसरे का पूरक समझिए। इन दोनों हिस्सों के 10-11… Read More
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