“गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 28/9/2021

 

बुद्ध की विशेषता है कि वे एकदम उपदेश देना शुरू नहीं कर देते। घूमते-फिरते बैठे सामान्य पर्यावरण में सहज होकर मित्रवत् बातें करते हुए अपने उपदेशों का कथन कर देते हैं। इसी कारण बुद्ध सरल हैं, बोधगम्य हैं। 

ऐसे ही बुद्ध एक बार श्रावस्ती के जैतवन में भ्रमण कर रहे थे। उस अवसर पर मालुंक्यपुत्त ने बुद्ध से संसार के शाश्वत – अशाश्वत, जीव, देह की भिन्नता, अभिन्नता आदि के बारे में प्रश्न पूछे। 

बुद्ध ‘अव्याकृत’ अर्थात् अकथनीय यानि ‘इन पर विचार करने की आवश्यकता नहीं (चूल मालुंक्यासुत्त)’ कहकर बात समाप्त कर देते हैं। 

मालुंक्य बुद्धिमान शिष्य थे। बुद्ध के साथ रहते-रहते बुद्धि खुल चुकी थी। बुद्ध के ‘अव्याकृत’ कहने पर समझ गए। चुप हो गए। उनकी जिज्ञासा शान्त हो गई। 

बुद्ध से बहुत से परिव्राजक भी मिलते रहते थे। उनके भी ऐसे ही प्रश्न होते थे। एक पोठ्ठपाद नाम का परिव्राजक आता है। वह ईश्वर क्या है? शाश्वत है या नहीं ? आदि प्रश्न पूछता है। 

परिव्राजक है। घूमता रहता है। विभिन्न लोगों से मिलता होगा। स्वयं को सन्त महात्मा समझने वालों की परीक्षा लेता होगा। या फिर मानसिक उथल-पुथल में परिव्राजक हो गया होगा। निकल पड़ा होगा ईश्वर की खोज में। एक दिन बुद्ध से टकरा गया और पूछ बैठा। अशान्त मन परिव्राजक की जिज्ञासा शान्त करते हुए बुद्ध स्पष्ट कहते हैं, “न यह अर्थयुक्त है, न धर्मयुक्त। न ब्रह्मचर्य के लिए उपयुक्त है, न निर्वेद के लिए। न विराग के लिए, न निरोध के लिए। न सबोधि के लिए, न निर्वाण के लिए है। मैंने इन्हें इसीलिए ‘अव्याकृत’ कहा है। मैंने दुःख को, दुःख हेतु को, दुःख निरोध को तथा दुःख निरोध-गामिनी मार्ग को व्याकृत कहा है।” 

आगे बड़ा सुन्दर दृष्टान्त देते हुए कहते हैं, “भिक्षुओ! जैसे किसी आदमी को विष का बाण लग गया हो। उसके बन्धु-बान्धव उसे वैद्य के पास ले जाएँ । लेकिन वैद्य कहे कि मैं तब तक बाण नहीं निकाल पाऊँगा, जब तक जिस आदमी ने तीर मारा है, उसके विषय में ये न जान लूँ कि वह क्षत्रिय है या ब्राह्मण। जब तक यह न जान लूँ कि तीर मारने वाला अमुक नाम है। अमुक गोत्र है। लम्बा है, छोटा है, बड़ा है। तो हे भिक्षुओ! उस वैद्य को यह सब जानकारियाँ मिल ही नहीं पाएँगीं और बाण लगा व्यक्ति मर जाएगा।” ( दीर्घ निकाय)   

आशय यह है कि बुद्ध ने दुःख को दूर करने का उपाय बताया है, जिसमें व्यक्ति फँसा हुआ है। बाकी चीजें क्या हैं? कैसे हैं? इनको जानने की कोई आवश्यकता नहीं। इसलिए इस तरह के प्रश्नों पर बुद्ध मौन का सहारा लेते हैं। इस तरह के प्रश्न अव्याकृत हैं। अर्थात् शब्दों से नहीं समझाए जा सकते। शब्दश: इनका विवरण देना सम्भव नहीं।

बुद्ध अपने दृष्टान्त से हमें आग़ाह कर रहे हैं कि भाई क्या कर रहे हो? कहाँ इधर-उधर की चीजों में भटक रहे हो। अपने हाल तो ऐसे हैं, “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास” करने को कुछ कहा जाता है। कर कुछ और रहे है। बुद्ध कहते हैं- बुद्ध बनो और हम हैं कि ईश्वर को खोजने लगते हैं। बुद्ध बनते ही ईश्वर तो मिल ही जाएगा। उपनिषद भी कहते हैं, “तत् त्वम् असि”  वह अर्थात् ईश्वर तुम ख़ुद हो। जैसे ही व्यक्ति जान लेता है- ‘वह मैं हूँ’ तो कह उठता है “अहं ब्रह्माऽस्मि”  मैं ही तो वह ब्रह्म हूँ। मैं ही तो बुद्ध हूँ। बाण निकला शरीर स्वस्थ हो ही जाएगा। विष लगा बाण न निकालें और सोचें स्वस्थ हो जाएँ तो कैसे होगा?

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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 30वीं कड़ी है।) 
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां ये रहीं…

29वीं कड़ी : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28वीं कड़ी : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27वीं कड़ी : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26वीं कड़ी : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25वीं कड़ी : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24वीं कड़ी : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23वीं कड़ी : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22वीं कड़ी : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21वीं कड़ी : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20वीं कड़ी : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19वीं कड़ी : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18वीं कड़ी : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17वीं कड़ी : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16वीं कड़ी : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15वीं कड़ी : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14वीं कड़ी : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13वीं कड़ी : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12वीं कड़ी : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11वीं कड़ी : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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