अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 19/10/2021
प्राचीन काल में काशी राज्य पर ब्रह्मदत्त नाम के राजा राज्य करते थे। कहते हैं, उन्हीं के समय में एक पहाड़ी पर बोधिसत्त्व (बुद्ध) ने वृक्ष के रूप में पुनर्जन्म लिया। वे आसपास के क्षेत्रों में रहने वालों के आचार-विचार पर ध्यान रखते थे। उसी पहाड़ी के पास घाटी में एक गुरुकुल था। एक विद्वान पंडित वहाँ के आचार्य थे। वे अपने कुछ शिष्यों के साथ गुरुकुल में रहते थे। एक बार अनजाने में आचार्य से कोई पाप हो गया। उस पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने एक व्रत रखने का निश्चय किया। उस व्रत के नियम के अनुसार उन्हें एक बकरे की बलि देनी थी। इसलिए आचार्य ने किसी धनी व्यक्ति से एक बकरा माँगा। बकरा मिल जाने पर आचार्य ने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा, “जाओ इसे नदी में नहला कर ले आओ।”
नहलाने के बाद वापसी में अचानक मनुष्य के हँसने की आवाज़ सुनाई दी। शिष्यों को लेकिन कोई मनुष्य दिखाई नहीं दिया। उन्होंने देखा कि बकरे की आँखों से आँसू बह रहे हैं। शिष्यों को यह देख बड़ा आश्चर्य हुआ। वे आश्चर्य के साथ अपने गुरु के पास बकरे को लेकर पहुँचे। बोले, “ऐसा लगता है कि बकरे में कोई प्रेत-आत्मा घुस गई है। नदी के पास यह मनुष्य की तरह बोल रहा था। बाद में रोने भी लगा। ऐसा पशु बलि के योग्य नहीं। अच्छा हो कि कोई और बकरा लाया जाए।”
आचार्य कुछ कहने ही जा रहे थे कि तभी बकरा मनुष्य की आवाज़ में बोला, “मुझे बलि का बकरा बनाने से तुम लोगों को क्या आपत्ति है? तुम सब ऐसा करने से डर क्यों रहे हो?” उसे ऐसे बोलते देखकर आचार्य को भी आश्चर्य हुआ। तब बकरा उनसे कहता है, “मुझे बोलते हुए देखकर आप आश्चर्य क्यों कर रहे हैं?” आचार्य बोले, “एक बकरे को मनुष्य की तरह बोलते हुए देखना आश्चर्य की ही तो बात है।” इस पर बकरा उन्हें आश्वस्त करते हुए बताता है कि वह किसी जन्म में विद्वान मनुष्य था। नदी में नहाते समय उसे अपने उसी जन्म का स्मरण हो आया। इसके बाद वह उदास होकर चुप हो रहता है।
आचार्य उससे उदास होने का कारण पूछते हैं। ज़वाब में वह बताता है, “विद्वान होते हुए भी पूर्व जन्म में मुझसे कोई पाप कर्म हो गया। उस पाप के फल से बचने के लिए मैंने बकरे की बलि दी। इस कारण कारण मुझे 500 जन्म लेने पड़े। यह मेरा बकरे के रूप में अन्तिम जन्म है। जिस कारण मुझे बकरे के रूप में जन्म लेना पड़ा, वही बात तुम करने जा रहे हो। यही सोचकर मेरी आँखों में आँसू आ गए।” इसके बाद वह ये भी बताता है, “मेरी मृत्यु तो आज निश्चित है। मैं उसकी बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा हूँ। ताकि इस जीवन से मुक्त हो जाऊँ।”
लेकिन उसकी बात सुनकर आचार्य ने निश्चय किया कि वे बकरे की बलि अब नहीं देंगे। वे उस बकरे को छोड़ देते हैं। बोधिसत्त्व इस घटना को देखकर सन्तोष का अनुभव करते हैं। वे सोचते हैं कि आचार्य आज वास्तव में कर्मबन्धन से मुक्त होने का उपाय जान गए हैं। दुख निवृत्ति, सुख प्राप्ति का मार्ग जान गए। अब वे मोक्ष प्राप्त कर सकेंगे।
दरअसल, कर्म से मुक्त होना ही तो मोक्ष है। निर्वाण है। जब हम सुख-दुःख के भाव से मुक्त होकर केवल ईश्वर को समर्पित होते हुए कर्म करते हैं, तब कर्मबन्धन से भी मुक्त होते हैं। इस तरह किया गया कोई कर्म हमें बाँधता नहीं है। इस तरह हम मोक्ष की राह पर बढ़ते जाते हैं।
बुद्ध कहते हैं, “यह आत्मा कर्मों से पृथक् रहकर, बुरी बातों को छोड़कर, सवितर्क, सविचार, प्रीति सुख वाले ध्यान को प्राप्तकर विहार करता है। इसलिए यह आत्मा इसी संसार में आँखों के सामने ही निर्वाण प्राप्त कर लेता है।”
( दीर्घ निकाय, ब्रह्मजाल सुत्त 1/1)
यह आनन्द रूप, सुख रूप निर्वाण हम प्राप्त करने हेतु ही जीवन भर उपक्रम करते रहते हैं। इसे प्राप्त करने का बुद्ध ने सरल सा उपाय बताया है कि जीवन को सहज रूप से जीना ही निर्वाण है। तैत्तिरीय उपनिषद में ब्रह्म को रस रूप, आनन्द रूप कहा है ( रसो वै स: रसम् ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दी भवति- 2.7.2) हम ईश्वर को पाकर परम आनन्द में हो जाते हैं। जब हम सरल हो जाते हैं, तब आनन्दरूप हो जाते हैं। आनन्दरूप होते ही निर्वाण अपनी आँखों से प्राप्त कर लेते हैं। ईश्वर आनन्द-स्वरूप है। स्वयं को समर्पित कर कर्म करना ही मोक्ष है। निर्वाण है।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 33वीं कड़ी है।)
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां…
32वीं कड़ी : हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं?
31वीं कड़ी : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30वीं कड़ी : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29वीं कड़ी : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28वीं कड़ी : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27वीं कड़ी : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26वीं कड़ी : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25वीं कड़ी : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24वीं कड़ी : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23वीं कड़ी : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा!
22वीं कड़ी : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो
21वीं कड़ी : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो?
20वीं कड़ी : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है
19वीं कड़ी : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है
18वीं कड़ी : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है
17वीं कड़ी : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं?
16वीं कड़ी : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला?
15वीं कड़ी : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है?
14वीं कड़ी : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है?
13वीं कड़ी : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं?
12वीं कड़ी : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन
11वीं कड़ी : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई?
10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है?
नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की!
आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?
सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे?
छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है
पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा?
चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं?
तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए!
दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा?
पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?
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