समीर पाटिल, भोपाल, मध्य प्रदेश से
पतित मानस द्वारा समानता की माँग अपनी अनार्यता छिपाने का स्वाँग ही होता है। एक समान अनुभूति होने पर भी इंसान उसका भोग अपने संस्कारों के अनुरूप ही करता है। नैतिक और आध्यात्मिक आधार पर सांस्कृतिक श्रेष्ठता के सत्य को कोई छद्म छिपा नहीं सकता…
चार लाइनों को सुनिएगा, पढ़ना चाहें तो पढ़िएगा और समझिएगा।
काव्य शब्दश: नीचे दिया गया है, जिसे आवाज़ दी है- नीलेश द्विवेदी ने।
“सावन में नाचते मोरों को निहार रहे थे दो लोग।
मूर्तिमान सुन्दरता को देख आत्मविस्मृत, अभिभूत।।
एक ने मयुरपंख को परमात्मा का स्मृति-चिह्न बना पूजा।
और दूजे ने… मोर का शिकार कर उसके स्वाद का क़सीदा पढ़ा।।”
—–
(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी के शुरुआती और सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर पाटिल। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। मध्य प्रदेश के ही रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ भी लिखा लिया करते हैं।)
—-
समीर की पिछली हालिया पोस्ट
2. ‘रे मन चल गाँव की ओर’… यह कोई पलायन नहीं है!
1. चार लाइनों में सुनिएगा…. पुरुष और स्त्री मन के सोचने के भिन्न तरीकों के बीच बहता जीवन!