सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई?

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 18/5/2021

लगभग 2,600-2,700 वर्ष पूर्व भारत-भारती पर भासमान भास्कर का उदय हुआ। उसने भारत ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित किया। यह सूर्योदय कपिलवस्तु के सिंहासन पर बैठने वाले परमसौभाग्यशाली राजा शुद्धोधन के राजमहल में हुआ। महाराज शुद्धोधन अपनी बड़ी रानी को प्रसव पूर्व रीति के अनुसार उनके पिता के घर (मायके) भेजते हैं। परन्तु मार्ग में ही लुम्बिनी नामक वन्य क्षेत्र में पुत्र का जन्म हो जाता है। वह तेजस्वी बालक जन्म के सात दिन बाद ही मातृछाया से वंचित हो जाता है। बालक का लालन-पालन उसकी विमाता करती हैं। तेजस्वी बालक का राशि नाम गौतम रखा गया। लोकप्रसिद्ध नाम- राजकुमार सिद्धार्थ।

राजकुमार सिद्धार्थ का विवाह अठ्ठारह वर्ष को अवस्था में कोली कुल की कन्या यशोधरा से हुआ। यशोधरा के साथ 10 वर्षों के वैवाहिक सुखों के भोगोपरान्त पुत्र जन्म का दिन आया। लेकिन उस दिन, एक तरफ राजकुमार सिद्धार्थ के नवजात पुत्र के जन्मोत्सव और राज्य के उत्तराधिकारी के शुभागमन के हर्ष में  आनन्दित, उल्लसित और मङ्गलगानों से गूँजित नगर था। दूसरी ओर इन क्षणिक सुखों और असीम दुःखों के बन्धनों से मुक्ति के मार्ग की खोज में उद्विग्न मन। सिद्धार्थ ने उसी क्षण में निर्णय लिया और  राज्य को, नगर को, परिवार को, यशोधरा को और पुत्र राहुल (भव-बन्धनों) को त्याग कर ज्ञान की खोज में बढ़ गए। जीवन के परम सुख की खोज में दुर्गम पथ पर अग्रसर हो गए। इस गृहत्याग की घटना को बुद्ध परम्परा में ‘महाभिनिष्क्रमण’ कहा जाता है।

वास्तव में, विवाह पूर्व से ही राजकुमार सिद्धार्थ विशिष्ट आत्मिक अनुभूतियों में स्वयं को घिरा पाते रहे। मानव जाति के दुःखों वेदनाओं और बन्धनों पर गहन मानसिक मंथन चलता रहा। कोई समाधान दिखाई नहीं पड़ा। इस मानसिक उथल-पुथल ने सिध्दार्थ को नवीन मार्ग की खोज को विवश किया। हालाँकि सिद्धार्थ के गृहत्याग के पीछे और भी घटनाएँ कारण रूप से बताई जाती हैं। जैसे- वैभवशाली जीवन में भी प्रजाजन की कठिनाइयों, दुःखों को दूर करने की लालसा कोमलहृदयी सिद्धार्थ के मन में समय के साथ दृढ़ होती गई। निर्बल वृद्ध मनुष्य को देख इस अभिलाषा ने संकल्प का रूप धारण किया। उस संकल्प ने सिद्धार्थ को अपनी प्रजा के दु:ख दूर करने के उपाय खोजने के लिए प्रेरित किया। इस तरह सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका तैयार हुई होगी।

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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 11वीं कड़ी है।)

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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां ये रहीं….

10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है?

नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की!

आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है? 

सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे?

छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है

पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा?

चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं?

तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए!

दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा?

पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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