समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल से
देश की अर्थव्यवस्था विकास की एक अभूतपूर्व स्थिति से गुजर रही है। कमजोरी से जूझती बीमार विश्व अर्थव्यवस्था के लिए भारत और चीन की विकास दर ही संजीवनी और विशल्यकर्णी औषधि है। अपने अस्तित्त्व के लिए दुनिया चीन के साथ जिस दूसरे देश के आर्थिक विकास पर निर्भर है, वह भारत है। भारत को दुनियाभर में मिल रही तवज्जो और उसके आत्मविश्वास के पीछे यही मुख्य कारण है।
लेकिन शहर, उद्योग और इंफ्रास्ट्रक्चर वाले इस विकास के दायरे से बाहर ग्रामीण इलाके की हकीकत देखें तो सबसे ज्यादा रोजगार-उत्पादन देने वाली कृषि भारत में ही भारी संकट से गुजर रही है। खेती नुकसान का सौदा बन गई है। कृषि और ग्रामीण जगत भारी लाचारी और पलायन की समस्या झेल रहा है। जिसकी गाँवों में तो भारी चर्चा है, किन्तु शहरी बाशिन्दों और सरकारी तंत्र को उसकी कोई हवा तक नहीं। क्या कारण है कि संवैधानिक, वैचारिक या सांस्कृतिक महानता के प्रणयगीत गाने वाले राजनेता, विचारक-चिन्तक और आम आदमी – इस विकराल समस्या को देख पाने में बौद्धिक और चारित्रिक रूप से बौने साबित हो रहे हैं? कारण यह है कि राजनेताओं, धनाड्य नौकरशाहों और कारोबारियों ने तो खेतों से सोना उपजाने का हुनर सीख लिया है। विकास और भूमंडलीकरण के नाम पर जो वैश्विक संधियाँ की गई हैं, उससे इस वर्ग ने अपने खीसे भर लिए हैं। और उसकी कीमत आज खेतिहर किसान कई तरीकों से चुका रहे हैं। बीते माह कुछ दिन ग्रामीण इलाकों में बिताने का मौका मिला। यकीन मानिए मेहनतकश खानदानी किसानों के हालात और लाचारी के ऐसे किस्से सुनने को मिले कि उन्हें सुनने वाले का हलक सूख जाए।
मसलन- एक ताऊजी ने बताया कि उन्हें 12 एकड़ में लगभग पाँच क्विंटल कपास की फसल हुई है। जबकि औसतन एक एकड़ में चार से पाँच क्विंटल कपास का उत्पादन होता है। अभी खेत में कपास के बोंड लगे हुए हैं लेकिन उनसे कपास नहीं आ रही। बेमौसम बारिश की मार से तीन बार बोवनी हुई थी। महँगा कपास का बीज (जिसके ब्रांड नाम का जिक्र भर लम्बी और त्रासदायक कानूनी कार्रवाई का सबब बन सकता है) अब नए कीटों के प्रति असरकारक नहीं रहा है। खेती के कामों के लिए मजदूर 400 रुपए रोज पर भी नहीं मिलते और इन सब बाधाओं के बाद कपास की कीमत बमुश्किल 6,300 रुपए प्रति क्विंटल है। खेती किसानी एक ऐसा व्यवसाय रह गया है, जिसे वो ही करते हैं जो इसे न छोड़ पाने के लिए अभिशप्त हैं। ‘उत्तम खेती मध्यम बान, अधम चाकरी, भीख निदान’ कहने वाले देश में कोई किसान अपनी अगली पीढ़ी को खेती में नहीं डालना चाहता।
एक अन्य किसान ने बताया कि खेती-किसानी कर रहे बच्चों को विवाह के लिए लड़कियाँ उपलब्ध नहीं है। गाँवों में ऐसे अविवाहित लड़कों की बड़ी संख्या है। मामला सिर्फ आर्थिक ही नहीं है। पढ़ी-लिखी हर लड़की के पिता का लक्ष्य अपनी बेटी के लिए यूएस, पुणे, बेंगलुरू की किसी कम्पनी में कार्यरत नवयुवक होता है। हाँ वे यह भी चाहते हैं कि नवयुवक की पैतृक गाँव में जमीन भी हो। क्यों? ऐसा पूछने पर उन्होंने बताया कि इसके पीछे सोच यह रहती है कि जमीनों की कीमतें काफी बढ़ गई है। अगले 15-20 साल बाद युवक जमीन बेचकर अपना आशियाना पक्का कर ही सकता है।
घरों के बेटे-बहू खेती, गाय-बैल आदि को छूना नहीं चाहते। खेतिहर मजदूर भी ढूँढने से नहीं मिल रहे। हालत यह है कि मजदूर आकर खेत देखता है और फसल देखकर तय करता है कि वह उसे प्रतिदिन के हिसाब से काम करेगा या प्रति किलो के हिसाब से। पारम्परिक विविधता की खेती, जिसमें किसान थोड़ी-थोड़ी विविध फसलें उपलब्ध संसाधनों, बाजार और जरूरत के हिसाब से करता आया है, मजदूरों के अभाव में नहीं कर पा रहा।
पड़ोस में खड़े काका ने कहा, “टमाटर, प्याज महँगे हाेने अक्सर सियापा मचता हैं। क्या तुम्हें ब्रांडेड बीज की कीमत मालूम है? कीटनाशक की कीमत जानते हो? खरपतवार नाशक रसायन की कीमत जानते हो? खेती के सारे जोखिम उठाने के बाद किसान को सिर्फ सालभर की मजदूरी भर मिल जाए तो भी वह खुद को खुशकिस्मत समझता है।गाँवों में ज्वार, बाजरा, फूल, फल और भाजी जैसी कई फसलों के पारम्परिक बीज अप्राप्य हैं। मोटे अनाज को सरकार जो बढ़ावा दे रही है वह बहुत सफल नहीं होगा, क्योंकि सरकार विकास के लिए जिस बाजार तंत्र को बढ़ावा दे रही है यह उसके साँचे के मुताबिक नहीं है।” मैंने वापस लौटते हुए देखा कि कई खेतों में दूर दूर तक उड़ रही सफेद कपास लाचारी बयाँ कर रही थी, महँगी मजदूरी न दे पाने वाले किसी गरीब किसान की बर्बादी की।
मजे की बात है कि यह विकराल समस्या को यथारूप समझने या उस पर चर्चा करने की क्षमता हमारे पास नहीं है। यह स्थिति तब है जबकि रसायनिक खाद से पैदा अनाज, कीटनाशक और इंजेक्शन वाले फल-सब्जी, सिंथेटिक दूध नकली मावा, नकली घी-पनीर सब हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा बन गया है। कृषि उत्पाद का मूल्य देते हुए उसके नैतिक पक्ष को बिलकुल नहीं देख पाते कि सस्तेपन के बाजार का सत्य अपमिश्रण ही है। जब आम आदमी ग्वाले से निखालिस मलाईदार शुद्ध दूध की तो किसान से देसी जैविक शाकान्न की अपेक्षा करता है, तो उसे इस चाहना में छिपी मूढ़ता कहीं दिखाई नहीं पड़ती। किसी स्वस्थ दिनश्चर्या वाले व्यक्ति को कैंसर जैसी किसी बीमारी से पीड़ित होने पर बारवायत चर्चा जरूर हो जाती है।
उत्तर उपनिवेशी सत्ताओं में भौतिक उपभोगवाद पूरी तरह से डाउनलोड हो चुका है। इसका सबूत है राजनेताओं द्वारा कूटी गई अकूत दौलत। राजनेता जो पुराने राजतंत्र और घरानों को अलोकतांत्रिक बताते कभी नहीं अघाते थे, उन्होंने ही भ्रष्टाचार से ऐसा पैसा बनाया कि जिसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। अदूरदर्शी और लोकरंजक भोगवाद की जो खेती हम कर रहे हैं उससे हम गहरे नैतिकता का मूल्य कभी नहीं कर सकते। नौकरशाह नीति निर्माताओं को न नैतिकता से ज्यादा सरोकार होता है न जमीनी हकीकत की कोई खबर। वे बेचारे तो अल्प संन्तुष्ट ही होते हैं। सरकारें नीति निर्माता विकास सम्बन्धी सोच, नीति और क्रियान्वयन के लिए धनवान देशों के विश्वविद्यालय, थिंक टैंक और आर्थिक संगठनों की ओर मुँह ताकते दिखती है।
मामले कई हैं। मसलन सरकार जब यह कहती है कि वह अमुक साल तक तमुक प्रतिशत ग्रामीण आबादी को शहरों में बसाना चाहती है, तो कोई इस अंधे शहरीकरण के सम्भावित लाभ या दुष्प्रभाव नहीं पूछता। उपभोगवाद के इस दौर में सरकार जनता की सुविधा या विलासिता के अजब-गजब सब्ज बाग दिखाकर विकास की भूमिका रचती है। इसके बाद जीव-जन्तु, वनस्पति, पालित पशुओं और समग्र प्रकृति को उत्पादाें के लिए कच्चेमाल की तरह इस्तेमाल करने की नीति बनाई जाती है। एक आम उदाहरण लें – नीति निर्माता कैटल फ्री स्मार्ट सिटी की बात करते हैं। हिरण, नीलगाय, बनैला, पंछियों को पेस्ट या परोपजीवी घोषित कर मारने के लाइसेंस दे रही है। कोई यह सवाल नहीं करता कि जीव-जन्तुओं के साथ पारस्परिक कृतज्ञता के सम्बन्ध के अभाव में हमारा मानस किस दिशा और दशा में विकास करेगा? यह विकृत मानव सुविधावाद कहाँ से आ रहा है। बात यह है कि पूरे कुएँ में भाँग गहरे तक फैल जो चुकी है।
मानवता और समानता के लोकरंजक नारे के नाम पर हर नैतिकताविहीन नीति चल जाती है। विकास के यह विज्ञान में जनता को बहलाए रखने के लिए मनरेगा, मुफ्त बिजली, सस्ता अनाज, मुफ्त शिक्षा, सीधे खाते में धन हस्तांरण जैसे टोटके अपरिहार्य हैं। जैसे कि सभी राजनेता कहते है जनकल्याण कोई खैरात नहीं, रेवड़िया नहीं, कोई एहसान नहीं। सच तो यह है कि जनकल्याणकारी योजनाएँ गरीबों को चुप रहने के लिए दिया जाने वाला मुआवजा हैं कि कहीं वो अपने वास्तविक हक ना माँग बैठें। उनका हक कौन खा रहा है? चतुर नेता कहते है कि इसे जमींदार खा रहे है, ब्राह्मण खा रहे हैं, व्यापारी, उद्योगपति खा रहे हैं। लेकिन इनमें कोई नेता यह कहने का साहस जुटा पाते कि विकास की इस इबारत में गरीबों का हक विदेशी आका और उनसे जुड़े तंत्र के लोग खाते हैं। तंत्र जो कुछ पैदा नहीं करता किन्तु हर उत्पादन की गतिविधि पर अपना कब्जा कर पैसा पैदा करता है।
विचार-चिंतन का दंभ भरने वाला मीडिया उसी अर्थतंत्र पर आश्रित है, जिसकी डोर बड़े कॉरपोरेट्स और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और उनके व्यापारी कारिन्दों के हाथों मे रही है। परिणामस्वरूप कृषि संकट के नाम पर वह किसानों की आत्महत्या को सनसनीखेज बनाकर, सड़क पर विरोध में उतरे किसानों को दूध का टैंकर सड़क पर बहाते, टमाटर-प्याज की ट्रालियों को खेतों में नष्ट करते और ऐसे तमाम मामलों को सनसनीखेज बनाकर और उसे सड़कछाप राजनीतिक छींटाकशी या सामाजिक नूराकुश्ती और तमाशे के स्तर पर लाकर छोड़ देती है।
आम आदमी को हम सुविधाग्रस्त कह सकते हैं। जो आचार-विचार में धर्म मर्यादा को छोड़ उपभोग और सुविधाओं को जीवन का अन्तिम लक्ष्य बना बैठा है। मौकापरस्ती और पाखंड ही उसका स्वधर्म है। धनपशु बनना ही उसका लक्ष्य है। समग्र दृष्टि जिसमें सबका हित है उससे उसे कुछ लेना-देना नहीं। परिणामस्वरूप उपनिवेशियत का भार ढो रहा हमारा राष्टीय चिन्तन भी नैतिक निर्वात में रहता है। इसमें आत्मावलोकन की वह सम्भावना ही नहीं बचती जो सत्य और सृजनात्मकता के आधार पर सही हल खोज सके। समाज के सभी लोग अपने क्षुद्र हितों के चलते नीति मर्यादा को छोड़कर जी रहे हैं। श्रमपूर्वक उपयोगी वस्तुओं के उत्पादन में कठिनाई और जुगाड़ और अनुपयोगी उत्पादों से धनवर्षा संकेत है कि आर्थिक विकास के लुभावने आंकडे़ हमारी उस नैतिक सोच और समझ की कीमत है, जिसे हम गर्व के साथ नीलाम कर रहे हैं।
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(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी के शुरुआती और सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराया करते हैं।)
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