समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल, मध्य प्रदेश
जिस रफ़्तार से हम अपनी ज़िन्दगी में मशीन-रसायनों का समावेश कर रहे हैं, हमारे शहर उसी अनुपात में मानवीय चेतना और भावना विहीन होते जा रहे हैं। हमारी दिनचर्या, खान-पान, मनोरंजन, पेशा-कारोबार, सामाजिक सरोकार हर चीज पर मशीन-रसायन हावी होते जा रहे हैं। दाल-रोटी-शाकभाजी में रसायन तो मनोरंजन के स्रोत और साधन में इलेक्ट्रानिक यंत्र; पेशा-कारोबार से लेकर सामाजिक सरोकार तक सबकुछ में एक यांत्रिकता घुसती जा रही है। हम यंत्र के आधार पर बेहतर आर्थिक-सामाजिक सुख-सुविधाएँ हासिल कर रहे हैं और इस दौड़ में हमें यंत्रों की मदद से यंत्रवत दूसरे जीव-जन्तुओं का उपयोग कर रहे हैं। इससे हमारी अनुभूति-भावनाएँ, आपसी सम्बन्ध, आध्यात्मिक नैतिक मूल्यों की समझ भी जैविक जगत से जीवन्त सम्बन्ध की जगह चेतना की स्मृतियों से संचालित हो रही है।
इसे हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं। आज का एक सामान्य विद्यार्थी भी ज्योतिर्विज्ञान के सम्बन्ध में एक सदी पहले हुए व्यक्ति के मुकाबले ज़्यादा जानकारी रखता है। बहुत मुमकिन है कि वह इस जानकारी को प्रयोग में लाकर यंत्र, वायुयान, सॉफ्टवेयर आदि बना लें या कोई नई खोज-आविष्कार भी कर ले। लेकिन यह सम्भावना और भी बड़ी भारी है कि वही वैज्ञानिक ग्रह-नक्षत्रों की पहचान, स्थिति, गति और उनके पृथ्वी के मौसमचक्र और पर्यावरण से सम्बन्ध को नहीं ही जानता हो। अब यह तथ्य ज्ञान मीमांसा से भी आगे नैतिक समझ का प्रश्न है कि मानव अस्तित्त्व के लिए क्या ज़्यादा ज़रूरी है? वैज्ञानिक मशीन-उपकरण आधारित मानव सभ्यता या पर्यावरण प्रकृति से सामंजस्य वाला जीवन?
आज चींटी, मकड़ी, तिलचट्टे, छिपकली या चूहे जैसे किसी जीव-जन्तु के लिए हमारे घर-आँगन में कोई जगह नहीं। इंसान की हैल्थ, हायजीन और सुख-सुरक्षा की लालसा मनोविकार की हद को छूने लगी है। हमारे गाँव-शहरों का हाल इससे भी बदतर है। हम स्मार्ट सिटी के नाम पर पूरी निर्लज्जता से कैटल-फ्री सिटी या पशुमुक्त नगर की वकालत कर रहे हैं। उपयोगितावाद के नाम पर नदी-नाला, पर्वत, जंगल, जमीन का शोषण कर हर जीव-जन्तु के जीने के अधिकार को ही रौंद रहे हैं। सुविधाओं के नाम पर सीमेंट कंक्रीट और डामर की सड़कों का जाल कुछ इस कदर बुना जा रहा है कि पेड़,पौधे, वनस्पति, घास-पात के उगने की सम्भावना ही नहीं बचती। ऐसा आसुरिक सुख कब तक और कितनों को संतुष्ट रख सकता है? इस पर किसी का कोई विचार ही नहीं है।
इसे विज्ञान के जिन्न का असर कहें या मशीनी हो रही सोच का नतीज़ा कि प्रकृति के विकासक्रम के अन्तर्गत उन्नत हुई चेतना का पुंज न समझकर हम ख़ुद को उससे विलग कोई हस्ती मानने लगे हैं। यहाँ ज्ञान हमें विकास की अवधारणा के साथ ही समग्र मानव जाति के लक्ष्य और कर्त्तव्य को जाँचने का मौका दे रहा है। क्या अधिकतम यांत्रिकता और मशीनी मस्तिष्क से हम अधिकतम जीव-जन्तुओं के अधिकतम सुख को हासिल कर सकते हैं? क्या चेतना की उच्चतम अनुभूति के लिए मशीन-यंत्र अपरिहार्य है? ये ज्वलन्त मुद्दे क्या हमारे निजी आत्यंतिक सोच का आधार भी बनेंगे?
——–
(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी के शुरुआती और सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराया करते हैं।)
अभी इसी शुक्रवार, 13 दिसम्बर की बात है। केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी लोकसभा… Read More
देश में दो दिन के भीतर दो अनोख़े घटनाक्रम हुए। ऐसे, जो देशभर में पहले… Read More
सनातन धर्म के नाम पर आजकल अनगनित मनमुखी विचार प्रचलित और प्रचारित हो रहे हैं।… Read More
मध्य प्रदेश के इन्दौर शहर को इन दिनों भिखारीमुक्त करने के लिए अभियान चलाया जा… Read More
इस शीर्षक के दो हिस्सों को एक-दूसरे का पूरक समझिए। इन दोनों हिस्सों के 10-11… Read More
आकाश रक्तिम हो रहा था। स्तब्ध ग्रामीणों पर किसी दु:स्वप्न की तरह छाया हुआ था।… Read More