बांग्लादेश, श्रीलंका, लंदन, पेरिस, में जो हुआ, वह भारत के लिए ख़तरे की घंटी क्यों है?

टीम डायरी

बांग्लादेश से दहला देने वाली तस्वीरें और जानकारियाँ सामने आ रही हैं। ख़बरें हैं कि हिंसा पर उतारू प्रदर्शनकारी युवकों की भीड़ ने वहाँ की प्रधानमंत्री शेख हसीना के सरकारी निवास पर क़ब्ज़ा कर लिया है। वहाँ की संसद पर भी अपना अधिकार जमा लिया है। इसके बाद शेख हसीना को देश छोड़कर भागना पड़ा। वे भारत पहुँच गई हैं। जबकि बांग्लादेश की सत्ता वहाँ की सेना ने सँभाल ली है। 

हालाँकि इसके बाद भी वहाँ हिंसा थमी नहीं है। हिन्दू समुदाय की महिलाओं पर अत्याचारों की तस्वीरें और वीडियो भी सोशल मीडिया पर आ रहे हैं। मन्दिरों में तोड़-फोड़ और आगजनी की जा रही है। यहाँ तक कि बांग्लादेश के संस्थापक और प्रधानमंत्री शेख़ हसीना के पिता शेख मुज़ीब-उर-रहमान की आदमक़द प्रतिमाओं को भी जगह-जगह तोड़ा जा रहा है। हिंसा में अब तक 300 लोगों मारे जा चुके हैं। 

अलबत्ता बांग्लादेश अकेला नहीं है, जहाँ ऐसे उपद्रव हुए हैं। ब्रिटेन में भी इसी तरह के उपद्रव चल रहे हैं। बताया जा रहा है कि बीते 13 साल में पहली बार वहाँ इस तरह के उपद्रव और हिंसा की स्थिति बनी है। फ्रांस की राजधानी पेरिस में भी ओलिम्पिक शुरू होने के बीच जुलाई में उपद्रव हुए थे। उपद्रवियों ने कई जगह रेल नेटवर्क को नुक़साान पहुँचाया था। आगज़नी की थी। इन्टरनेट बाधित किया था। 

इससे पहले 2022 का साल भी ज़्यादा दूर नहीं गया है। उस वक़्त श्रीलंका में तत्कालीन राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षा की सरकार के ख़िलाफ़ भी बांग्लादेश जैसा ही हिंसक प्रदर्शन हुआ था। भीड़ ने उनके सरकारी आवास पर भी क़ब्ज़ा कर लिया था। संसद पर भी प्रदर्शनकारी चढ़ आए थे। इसके बाद राजपक्षा को सत्ता ही नहीं, देश भी छोड़ना पड़ा था। वहाँ बाद की सरकारों ने मुश्क़िल से स्थिति सँभाली। 

इन सभी उदाहरणों में एक चीज़ मिलती-जुलती है। वह है हिंसा। ऐसी भीड़ की हिंसा, जिसको किसी न किसी कारण को आधार बनाकर बहुत व्यवस्थित और योजनाबद्ध तरीक़े से शासन-व्यवस्था, कानून-व्यवस्था, या फिर अर्थ-व्यवस्था को नुक़सान पहुँचाने के मक़सद से उकसाया गया हो। और इस उक़सावे के लिए बाहर कहीं से सम्बन्धित देश में ही मौज़ूद विशिष्ट विचाराधारा वालो लोगों की मदद ली गई हो। 

अस्ल में हिन्दुस्तान के लिए यही ख़तरे की घंटी होनी चाहिए और है भी। क्योंकि हिन्दुस्तान में भी लम्बे समय से सुगबुगा रहे किसान आन्दोलन को लेकर भी आरोप लगे हैं कि उसे भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर रणनीतिक और आर्थिक समर्थन मिल रहा है। ये सच है या नहीं, लेकिन इस आन्दोलन और इसी स्वरूप वाले अन्य आन्दोलनों में भारत की व्यवस्था को भंग करने की सभी आशंकाएँ ज़रूर मौज़ूद नज़र आती हैं।  

यह चिन्ता निराधार नहीं है। जनवरी 2021 की घटना किसी को भूली नहीं होगी। उस वक्त किसान आन्दोलनकारियों ने शान्तिपूर्ण प्रदर्शन के लिए दिल्ली में ट्रैक्टर रैली निकालने की अनुमति माँगी थी। उन्हें अनुमति मिली भी लेकिन प्रदर्शन करने वाले पूरी सुरक्षा व्यवस्था को भंग करते हुए लाल क़िले पर जा चढ़े। वहाँ 26 जनवरी के दिन भारत के राष्ट्रीय ध्वज के समानान्तर धर्म विशेष का झंडा फहरा दिया था। 

ध्यान देने की बात है कि वही किसान आन्दोलनकारी एक बार फिर दिल्ली की सीमाओं पर आ बैठे हैं। दूसरी बात ये कि बांग्लादेश के प्रदर्शनकारियों से सहानुभूति ज़ताते हुए हिन्दुस्तान में प्रभावशाली लोगों का एक वर्ग भी मीडिया-सोशल मीडिया पर सक्रिय है। इस वर्ग के द्वारा की जा रही बातें लगातार ऐसा संकेत देती हैं, जैसे वह भी देश की सरकार के ख़िलाफ़ लोगों को उग्र प्रदर्शन के लिए उक़सा रहा हो। 

इसीलिए भारत सरकार को सचेत रहने, ऐहतियाती क़दम उठाने की ज़रूरत है। क्योंकि अगर यह किसी अन्तर्राष्ट्रीय साज़िश का सिलसिला चल रहा है, तो उसकी अगली कड़ी कभी भी हिन्दुस्तान हो सकता है।     

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Neelesh Dwivedi

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