मृच्छकटिकम्-9 : पति की धन से सहायता करने वाली स्त्री, पुरुष-तुल्य हो जाती है

अनुज राज पाठक, दिल्ली से

सोए हुए ‘मैत्रेय’ द्वारा कसम देने से ‘शर्विलक’ आभूषणों की पेटी ले लेता है। तभी वहाँ ‘रदनिका’ के आने की आहट सुनाई देती है। इससे ‘शर्विलक’ सेंध से बाहर चला जाता है। ‘रदनिका’ घर में लगी हुई सेंध को देखकर शोर मचाती है और सभी को जगा देती है।

‘चारुदत्त’ सेंध देखकर चोर की प्रशंसा करता है। ‘चारुदत्त’ कहता है, “किसी शिक्षित व्यक्ति ने सेंध लगाई है। निश्चित ही वह बाहर का रहने वाला होगा। क्योंकि इस उज्जयिनी में कौन हमारे घर की दशा नहीं जानता। कितनी आशा से उस व्यक्ति ने सेंध लगाई होगी। लेकिन थककर और निराश होकर यहाँ से गया होगा। वह अपने मित्रों से क्या कहेगा कि सार्थवाह पुत्र चारुदत्त के घर कुछ नहीं मिला?”

विदूषक : अरे आप उस नीच चोर के बारे में सोच रहे हैं।

तभी याद कर, दुःखी होते हुए मन में, “अरे, वह आभूषणों की पेटी कहाँ है?”

फिर ‘चारुदत्त’ से बोलता है, “हे मित्र तुम हमेशा कहा करते हो कि ‘मैत्रेय’ मूर्ख और बुद्धिहीन है। मैंने अच्छा किया जो आभूषणों की पेटी आपको दे दी, अन्यथा उसे चोर चुरा ले जाता।

चारुदत्त : तुमने मुझे कब दी?

मैत्रेय : अरे! जिस समय मैंने कहा आपकी अंगुलियाँ ठंडी हैं।

चारुदत्त : मित्र! तो सौभाग्य से तुम्हें शुभ समाचार सुनाता हूँ।

मैत्रेय : क्या शुभ समाचार है?

चारुदत्त : यह कि चोर सफल – मनोरथ हो गया।

विदूषक : वह तो धरोहर थी।

चारुदत्त : धरोहर थी (और मूर्च्छित हो जाता है)

मैत्रेय : मित्र ! धैर्य धारण करें, आप मूर्च्छित हो रहे हैं?

चारुदत्त : धैर्य धारण करें? कैसे? कौन सच्ची बात पर विश्वास करेगा? सभी मुझ पर सन्देह करेंगे। क्योंकि इस संसार में प्रभावहीन दरिद्रता पर लोग सन्देह करते हैं। (कः श्रद्धास्यति भूतार्थं सर्वो मां तूलयिष्यति। शङ्कनीया हि लोकेऽस्मिन् निष्प्रतापा दरिद्रता।।) और तो और यदि दुर्भाग्य ने मेरा धन ले लिया कोई बात नहीं, किन्तु अब इस निष्ठुर ने मेरा चरित्र भी दूषित कर दिया। (यदि तावत् कृतान्तेन प्राणयोऽर्थेषु मे कृतः। किमिदानीं नृशंसेन चरित्रमपि दूषितम्।।)

विदूषक : मैं तो निश्चय से कहूँगा कि किसने देखा? किसने लिया?

चारुदत्त : तो क्या मैं झूठ बोलूँगा? नहीं। मैं भीख माँग कर ‘वसंतसेना’ की धरोहर वापस करूँगा। किन्तु चरित्र को दूषित करने वाला असत्य नहीं बोलूँगा। (अनृतं नाभिधास्यामि चारित्रभ्रंशकारणम्)

रदनिका : तो जाकर मान्या ‘धूता’ (चारुदत्त की पत्नी) को सब समाचार बता दूँ?

(ऐसा कहकर सभी वहाँ से निकल जाते हैं)

‘रदनिका’ से सारा वृत्तान्त सुनकर ‘धूता’ अपनी सेविका से विदूषक (मैत्रेय) को बुलाने के लिए कहती है। सेविका ‘चेटी’ विदूषक को बुलाकर लाती है। ‘धूता’ तब ‘मैत्रेय’ को अपने रत्न आभूषण देती है, जिससे चारुदत्त की सहायता हो सके।

विदूषक जाकर ‘चारुदत्त’ को ‘धूता’ द्वारा दिए गए आभूषण दिखाता है। उसे देख ‘चारुदत्त’ कहता है, “ब्राह्मणी (धूता) मेरे ऊपर कृपा कर रही हैं। आह, मैं निर्धन हो गया हूँ। अपने दुर्भाग्य से वैभव नष्ट होने से पुरुष स्त्री के धन पर पलता है। वह वास्तव में स्त्री तुल्य हो जाता है। पति की धन से सहायता करने वाली स्त्री, पुरुष-तुल्य हो जाती है।” (*आत्मभाग्यक्षतद्रव्यः स्त्रीद्रव्येणानुकम्पितः। अर्थतः पुरुषो नारी, या नारी सार्थतः पुमान्॥*) या फिर, मैं दरिद्र नहीं हुआ हूँ? क्योंकि मेरी पत्नी सम्पत्ति की सामर्थ्य के अनुसार चलने वाली है। आप जैसा सुख-दुःख का साथी मित्र भी है। और सत्य भी नष्ट नहीं हो पाया है। यह सब होना दरिद्रों में दुर्लभ है।(मम विभवानुगता भार्या सुखदुःखमुहृद्भवान्।सत्यञ्च न परिभ्रष्टं यद्दरिद्रेषु दुर्लभम् ॥)”

जाओ मित्र! तुम मेरी तरफ से ‘वसंतसेना’ के पास जाकर कहो कि यह रत्नावली अपनी धरोहर के बदले में रख ले। क्योंकि मैं धरोहर को अपना समझकर, जुए में हार गया हूँ। उसके बदले में यह रत्नावली स्वीकार करें।

लेकिन ‘विदूषक’ मना कर देता है। तब ‘चारुदत्त’ कहता है,  “ऐसा नहीं है, सुनो! जिस विश्वास से धरोहर रखी गई, उसी विश्वास का मूल्य दिया जा रहा है।(यं समालम्ब्य विश्वास न्यासोऽस्मासु तया कृतः। तस्यैतन्महतो मूल्यं प्रत्ययस्यैव दीयते।।) इसलिए मित्र जाओ और इसे देकर ही वापस आना है। और इस सेंध को जल्दी बन्द कर देना। जिससे फैली हुई अफवाह के बारे में चर्चा न हो। मित्र मैत्रेय, चाहे तो वसंतसेना से सब स्पष्ट बता देना।

विदूषक : क्या निर्धन व्यक्ति स्पष्ट बात कर सकता है?

चारुदत्त : अरे मित्र! जिसकी धूता जैसी पत्नी हो और तुम्हारे जैसा मित्र हो वह निर्धन कहाँ?

(तृतीय अंक समाप्त)

जारी….
—-
(अनुज राज पाठक की ‘मृच्छकटिकम्’ श्रृंखला हर बुधवार को। अनुज संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)

पिछली कड़ियाँ  
मृच्छकटिकम्-8 : चोरी वीरता नहीं…
मृच्छकटिकम्-7 : दूसरों का उपकार करना ही सज्जनों का धन है
मृच्छकटिकम्-6 : जो मनुष्य अपनी सामर्थ्य के अनुसार बोझ उठाता है, वह कहीं नहीं गिरता
मृच्छकटिकम्-5 : जुआरी पाशों की तरफ खिंचा चला ही आता है
मृच्छकटिकम्-4 : धरोहर व्यक्ति के हाथों में रखी जाती है न कि घर में

मृच्छकटिकम्-3 : स्त्री के हृदय में प्रेम नहीं तो उसे नहीं पाया जा सकता
मृच्छकटिकम्-2 : व्यक्ति के गुण अनुराग के कारण होते हैं, बलात् आप किसी का प्रेम नहीं पा सकते
मृच्छकटिकम्-1 : बताओ मित्र, मरण और निर्धनता में तुम्हें क्या अच्छा लगेगा?
परिचय : डायरी पर नई श्रृंखला- ‘मृच्छकटिकम्’… हर मंगलवार

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