अनुज राज पाठक, दिल्ली
वर्णों के उच्चारण की प्रक्रिया ‘शिक्षा’ नामक वेदांग से सीखने को मिलती है। वर्णों के स्पष्ट उच्चारण को संस्कृत व्याकरण परम्परा के ऋषि अत्यधिक महत्त्व देते हैं। उच्चारण की अशुद्धता या उच्चारण दोष व्यक्ति के लिए अनर्थकारी होता है। संस्कृत व्याकरण दर्शन के आचार्य इसी वाणी, वाक् को ब्रह्म मानते हैं। इसीलिए एक अक्षर के भी शुद्ध प्रयोग को ब्रह्म की उपासना मानकर पुण्य फल के रूप में स्वीकार किया जाता। वहीं अशुद्ध उच्चारण के बारे में कहते हैं कि जिसकी वाणी में उच्चारण दोष हो, वह दूषित वाणी वक्ता का विनाश कर देती है।
भारतीय शिक्षा परम्परा में शुद्ध-अशुद्ध उच्चारण के महत्त्व को दर्शाता एक सुन्दर उदाहरण है। यह एक तरह की चेतावनी के रूप में भी दिखाई देता है। यह बताता है कि कैसे ‘इन्द्रशत्रु’ शब्द में स्वरमात्र के अनुचित प्रयोग से इन्द्र के स्थान पर वृत्र का वध हो गया था। यह प्रसंग इस प्रकार है-
एक बार इन्द्र द्वारा अपमानित महसूस किए जाने पर देवताओं के गुरु बृहस्पति उन्हें छोड़कर चले गए। राक्षसों को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने देवताओं पर हमला कर दिया। तब इन्द्र के नेतृत्त्व में देवता ब्रह्मा जी के पास गए। उन्होंने देवताओं को सलाह दी कि त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को गुरु बना लो। वे बृहस्पति जैसे ही ज्ञानी हैं। सिर्फ, एक समस्या है कि विश्वरूप की माता असुर कुल की हैं। इसलिए वे असुरों के प्रति भी थोड़ा नरम भाव रखते हैं। यद्यपि वे देवताओं के हित में ही सभी काम करेंगे। बस, उनके इस भाव को अनदेखा करना होगा।
तात्कालिक तौर पर इन्द्र मान गए। उन्होंने विश्वरूप का गुरु के रूप में वरण कर लिया। लेकिन वे लगातार यह भी देखते थे कि अग्निहोत्र करते हुए विश्वरूप चुपके से अपनी माँ के कुल से सम्बन्ध रखने वाले असुरों के हित के लिए आहुतियाँ दे दिया करते हैं। यह देख आखिरकार एक दिन इन्द्र का धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने विश्वरूप का वध कर दिया। ये पता चलते ही विश्वरूप के पिता त्वष्टा क्रोधित हो गए। उन्होंने इन्द्र का वध करने के लिए आभिचारिक यज्ञ का अनुष्ठान किया। उद्देश्य था कि यज्ञ से ऐसा पुरुष उत्पन्न हो जो इन्द्र का वध करे।
यज्ञ कराने वाले ऋत्विजों को मन्तव्य बता दिया गया था। इसके बावजूद यज्ञ के दौरान ऋत्विजों से उच्चारण-दोष हो गया। ऋत्विजों ने ‘इन्द्रशत्रु-विवर्धस्व’ मंत्र से आहुतियाँ दी। इसमें गलती ये हो गई कि ‘इन्द्रशत्रु’ शब्द का उच्चारण करते हुए ऋत्विजों ने इन्द्र के ‘इ’ अक्षर का उच्चारण उच्च स्वर में कर दिया। जबकि उन्हें शत्रु के ‘त्रु’ अक्षर का उच्चारण जोर से करना था। इसका परिणाम ये कि यज्ञ से वृत्र नाम का जो पुरुष उत्पन्न हुआ, उससे इन्द्र ने बैर ठान लिया। और उन्होंने आगे चलकर वृत्र को मार भी दिया। यानि परिणाम उलटा हो गया।
ये बताना जरूरी है कि ‘इन्द्रशत्रु’ शब्द को यदि षष्ठीतत्पुरुष-समास के अनुसार उच्चारित किया जाए, तो इसका अर्थ होगा ‘इन्द्रस्य शत्रुः’ (इन्द्र का शत्रु)। और यदि बहुव्रीहि-समास के अनुरूप उच्चारण हो तो अर्थ होगा‒‘इन्द्रः शत्रुर्यस्य’ (जिसका शत्रु इन्द्र है)। क्योंकि समास में भेद होने से स्वर में भी भेद हो जाता है। अतः षष्ठीतत्पुरुष समास वाले ‘इन्द्रशत्रु’ शब्द का उच्चारण अन्त्योदात्त होगा। यानि अन्तिम अक्षर ‘त्रु’ का उच्चारण उदात्त स्वरसे होगा। वहीं, बहुव्रीहि-समास वाले ‘इन्द्रशत्रु’ शब्द का उच्चारण आद्योदात्त होगा। अर्थात् प्रथम अक्षर ‘इ’ का उच्चारण उदात्त स्वर से होगा।
उस यज्ञ में ऋषियों का उद्देश्य तो षष्ठीतत्पुरुष-समास वाले ‘इन्द्रशत्रु’ शब्द का अन्त्योदात्त उच्चारण करने का था। लेकिन भूलवश उन्होंने उसका आद्योदात्त उच्चारण कर दिया। इस प्रकार, दोनों समासों का अर्थ एक होने पर भी स्वरभेद होने से मंत्रोच्चारण का परिणाम बदल गया। इन्द्र का शत्रु ही नष्ट हो गया। (मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह। स वाग्वजो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्।।)
इसीलिए खासकर प्रार्थनाओं में मंत्रों के पाठ के समय उच्चारण की शुद्धता अनिवार्य कही जाती है। यहआग्रह केवल इसलिए है, क्योंकि शब्द ध्वनि तरंगों को उत्पन्न करता है। यह तरंगें जितनी व्यवस्थित क्रम से होंगी, उतनी प्रभावशाली होंगी। श्रोता के मस्तिष्क को प्रभावित करेगी। जैसे- ओंकार ध्वनि से प्रस्फुटित होने वाला नाद ब्रह्म बेहद सशक्त और सर्वशक्तिमान है। इस सम्बन्ध में कहा भी गया है, “द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत्। शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति”। अर्थात्- नाद (शब्द) ब्रह्म की उपासना के फलस्वरुप साधक इन्द्रियातीत क्षमताओं का अधिपति और स्वर्ग की सम्पदा का अधिकारी होता है। उच्चारण की शुद्धता का प्रताप ऐसा है।
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ
3- ‘शिक्षा’ वेदांग की नाक होती है, और नाक न हो तो?
2- संस्कृत एक तकनीक है, एक पद्धति है, एक प्रक्रिया है…!
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