समीर पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश
‘भड़िहाई’ शब्द बड़ा गहन अर्थ समेटे हुए है। सीधे-सीधे इसका तात्पर्य छोटी-मोटी चोरी-चकारी से लिया जाता है। लेकिन इस छोटी-मोटी समझी जाने वाली चोरी-चकारी में जो छोटापन है वह बहुत बड़ा है। इसमें छिपा है ‘भड़िहाई’ करने वाले के चरित्र का आकलन।
‘भड़िहाई’ में एक हल्कापन है। ऐसा कार्य जिसे कोई नीच, अपात्र और कायर करता है। वह इसे छुपकर करता है तो इसके पीछे हीनताजनित असूया और अयोग्य होने पर भी अतिक्रमण कर श्रेष्ठ को हासिल करने का भाव रहता है। प्राचीन नीति शास्त्रकारों ने इसकी तुलना कुत्ते द्वारा यज्ञ का हविष्य चुराने से की है। परवर्ती काल में यह कुत्ते द्वारा रसोई के भोज्य पर मुँह मारने, आहार चुरा ले जाने के उदाहरणों के लिए प्रयुक्त हुआ। नि:संदेह इसमें नीति व्यवस्था के उत्क्रमण का भाव है और उसे घाेर पापमय और दंडनीय समझा गया है।
चोरी, लूट, डकैती भी दंडनीय है। ऐसे कार्य में लिप्त व्यक्ति को आततायी की श्रेणी में रखा गया है। तथा इसके लिए प्राणदंड तक के विधान मिलते हैं। इसके बावजूद ऐसे अपराधों को कुछ कम आँका गया है। सम्भवत: उनके पीछे कारण आवश्यकता, क्रोध, लोलुपता जैसे मानवोचित कारणों को समझकर किया गया हो। किंतु ‘भड़िहाई’ को लेकर हमारी दृष्टि बहुत तीक्ष्ण है। यहाँ भोग के लिए ऋत् का, धर्म-अधर्म बोध का उत्क्रमण तो है ही, मनुष्य को प्राप्त सर्वोच्च उपलब्धि विवेक का तिरस्कार भी है।
‘भड़िहाई’ करने वाला स्वार्थवश दूसरे की वस्तु का हरण करता है तो उसे साकार करने के लिए छल-कपट का भी आश्रय लेता है। यह सब इसे अत्यन्त घृणास्पद बनाता है। शायद ऐसी वृत्ति के कारण ही कुत्ता, कौवा आदि कुछ जीवों को दूर से ही व्यवहार करने का उपदेश दिया जाता है।
चारित्रिक रूप से हर किस्म का उपनिवेशवाद ‘भड़िहाई’ ही है। हर वह विचार जो किसी बाहरी ताकत से दूसरे का मतान्तर करना चाहता है, फिर चाहे वह मजहब हो या सियासत किसी न किसी तरह ‘भड़िहाई’ में लिप्त रहा है। और अपनी इस वृत्ति को छिपाने के लिए ही वह अत्यन्त निरीह और न्यायकारक रूप धरकर हर जगह स्थानीय नीति मूल्यों का विरोध कर नए मूल्य रचता है।
वह स्थूल निम्नगामी भोगावाद के गीत गाता है और नैसर्गिक अपराध बोध से बचने के लिए बकौल मसीहाई देवदूत या किताब, एक महान करिश्माई क्षमा की कल्पना बेचता है। वह नवीन भाषा में समानता, स्वतंत्रता और न्याय के सुधारवादी स्वप्न दिखाता है। अधिकारबोध प्रधान और दूसरे के अधिकारों के अतिक्रमण में विश्वास रखने वाले उपनिवेशवादी मानस की हर तकरीर, हर तर्क एक छलावा होता है। ये यथार्थ में स्वर्णमृग की तरह छद्म होते हैं,जिनका लक्ष्य हमारी बुद्धि और विवेक को मोहाच्छादित करना होता है। ठीक वैसे ही, जैसे सीताजी के हरण प्रकरण में गोस्वामी जी ने इस भाव को यूँ लिखा है…,
“सो दससीस स्वान की नाईं । इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥”
(…क्रमश:)
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(नोट: समीर #अपनीडिजिटलडायरी के साथ शुरुआत से जुड़े हुए हैं। लगातार डायरी के पन्नों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं और भोपाल में नौकरी करते हैं। पढ़ने-लिखने में स्वाभाविक रुचि है।)
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