सांकेतित तस्वीर
टीम डायरी
देश के दो राज्यों- जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में इस वक़्त विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया चल रही है। इसके तहत 18 सितम्बर को जम्मू-कश्मीर में पहले चरण का मतदान है। इनके साथ ही साथ दिल्ली, महाराष्ट्र, झारखंड में भी चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। अगले कुछ महीनों में इन तीनों राज्यों में भी चुनाव होने हैं। यानी इन राज्यों की जनता के सामने बड़ा मौक़ा है कि वे सियासत को उसकी चाल-ढाल बदलने का स्पष्ट सन्देश दें। क्योंकि यक़ीन मानिए, अगर वे यह मौक़ा चूक गए तो ‘मुफ़्तख़ोर सियासत’ उनके राज्य का दिवाला निकाल देगी।
हाँ, यही सच है। ‘मुफ़्तख़ोर’ जनता नहीं, सियासत है। भारत की सियासत को बीते कुछ समय से एक आसान सा रास्ता मिल गया है कि जनता को मुफ़्त जैसी लगने वाली कुछ रेवड़ियाँ बाँटो और सत्ता तक पहुँचकर पाँच साल मौज़ करो। इस तरह की सियासत मुफ़्तख़ोर इसलिए है क्योंकि उसे जनता को मुफ़्त जैसी लगने वाली रेवड़ियाँ बाँटने के लिए अपनी ज़ेब से एक दमड़ी भी ख़र्च नहीं करनी होती। सरकार बनते ही सम्बन्धित सियासी दल बाहर से भारी-भरकम कर्ज़ लेता है। साथ ही, जनता पर करों का बोझ बढ़ाता है। यूँ जुटाई रकम से रेवड़ियाँ बाँटता है।
इससे सरकारी ख़ज़ाने पर कर्ज़ का बोझ बढता जाता है। उधर, जनता को मुफ़्त सी दिखने वाली रेवड़ियाँ तो मिल जाती हैं लेकिन कई बार उसकी मूलभूत ज़रूरतें पूरी करने के लिए भी सरकार के पास पैसा नहीं होता। कुछ समय पहले ही सामने आईं तीन राज्यों की मिसालें ले सकते हैं। पहला राज्य कर्नाटक। वहाँ जिस दल की अभी सरकार है, उसने चुनाव के दौरन मतदाताओं को कुछ ‘गारंटियाँ’ दी थीं। ज़ाहिर है, इनमें से ज़्यादातर गारंटियाँ मुफ़्त की रेवड़ियाँ बाँटने जैसी ही थीं। जैसे- कर्ज़ माफ़ी, वर्ग विशेष को हर महीने निश्चित राशि, लैपटॉप वितरण, आदि।
बताते हैं कि इन गारंटियों को पूरा करने के लिए कर्नाटक सरकार को सरकारी ख़ज़ाने से काफ़ी पैसा ख़र्च करना पड़ रहा है। इस कारण पैसे की कमी हो गइ है। इसलिए वह अपने कर्मचारियों को सालाना वेतन वृद्धि नहीं दे पा रही है। विभिन्न विभागों में खाली पद नहीं भर पा रही है। साथ ही, उसे कई महत्त्वपूर्ण योजनाओं के धन-आवंटन में भी कटौती करनी पड़ रही है। ठीक इसी तरह की समस्या से हिमाचल प्रदेश भी जूझ रहा है। वहाँ तो ‘मुफ़्त गारंटियों’ के चक्कर में कर्मचारियों को वेतन और पेंशन बाँटने के लिए भी सरकार के पास पैसे कम पड़ गए हैं।
स्थिति सँभालने के लिए हिमाचल प्रदेश के मंत्रियों और मुख्यमंत्री ने अगले दो महीने तक अपनी तनख़्वाह न लेने का फ़ैसला किया है। छोड़ेंगे नहीं अलबत्ता, बाद में लेंगे। बताते हैं कि हिमाचल सरकार कुछ योजनाओं के तहत दी जाने वाली सब्सिडी (कीमत या लागत कम करने के लिए सरकार की ओर से दी जाने वाली आंशिक वित्तीय मदद) आदि में भी क़टौती करने का निर्णय लिया है। इसलिए वहाँ ‘सरकार ग़रीब’ का नारा का चल पड़ा है। यहाँ दिलचस्प बात है कि कर्नाटक और हिमाचल, दोनों राज्यों में इस समय एक ही राजनैतिक दल की सरकारें हैं।
हालाँकि एक अन्य दल की सरकार वाले पंजाब में भी स्थिति कोई बेहतर नहीं है। यह राज्य एक समय देश के सबसे धनी राज्यों में शुमार होता है। लेकिन इस वक़्त ‘मुफ़्तख़ोर सियासत’ ने इस राज्य को 3.74 लाख करोड़ रुपए के कर्ज़ में दबा दिया है। इस आँकड़े को प्रतिव्यक्ति के हिसाब से बाँटा जाए तो पंजाब में रहने वाले हर पंजाबी के ऊपर अभी 1.24 लाख रुपए का कर्ज़ हो चुका है। यह आँकड़ा मार्च-2024 में आए राज्य सरकार के बजट का है। सोचिए, जिन सिखों को किसी के आगे हाथ न फ़ैलाने के लिए जाना जाता है, वे इतने कर्ज़दार हैं! आख़िर क्यों?
सीधा ज़वाब है- ‘मुफ़्तख़ोर सियासत’ के दिखाएा गए सब्ज़बाग़ की वज़ह से। उसके प्रलोभन में उलझकर सरकार चुनते समय ग़लत फ़ैसले लेने के कारण। इसीलिए पंजाब, हिमाचल से लगे चुनावी राज्यों- हरियाणा तथा जम्मू-कश्मीर को ही नहीं, बल्कि दिल्ली और महाराष्ट्र, झारखंड के मतदाताओं को भी ध्यान देने की ज़रूरत है। सिर्फ़ उन्हें ही क्यों? पूरे देश के, हर राज्य के मतदाताओं को ध्यान देने की ज़रूरत है कि ‘मुफ़्तख़ोर सियासत’ के झाँसों में न आएँ। मतदान से पहले सावधान हो जाएँ। क्योंकि मुफ़्त की रेवड़ी सिर्फ सियासी दलों को मुफ़्त में मिलती है, जनता को नहीं। जनता को मिलने वाली हर मदद सरकारी ख़ज़ाने से दी जाती है। और सरकारी ख़ज़ाना यानि जनता का पैसा!!
इसीलिए फिर आह्वान- ‘मतदान से पहले सावधान’!
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