प्रतीकात्मक तस्वीर
अजुज राज पाठक, दिल्ली
आत्महत्या के कारणों पर जब भी चर्चा होती है, तब हम बाहरी कारण गिनने-गिनाने लग जाते हैं। करियर, वित्तीय परेशानी, सामाजिक हैसियत, आदि। इनके बाद आन्तरिक कारणों की पड़ताल होती है। जैसे- चिन्ता, तनाव, दुःख आदि। लेकिन इसके बाद भी हम आत्महत्या के वास्तविक कारण नहीं खोज पाते। क्यों? क्योंकि वास्तविक कारण की खोज करते ही हमारी तलाश समाज, परिवार और व्यक्ति पर आकर ठहरती है। तो हम भला ख़ुद पर ऐसे इल्ज़ाम कैसे ले सकते हैं? इसीलिए हम व्यक्ति को, उसकी मानसिक स्थिति को दोषी बताना शुरू कर देते हैं।
कल्पना कीजिए कोई मनुष्य समाज में न रहे या तथाकथित सभ्य समाज का हिस्सा न हो तो वह क्या आत्महत्या जैसा कदम उठाने का विचार करता है? शायद नहीं। क्योंकि वहाँ एकान्त में कोई उसका आकलन करने वाला नहीं होता। वह स्वयं का मूल्यांकन करता है और स्वयं को बेहतर बना रहा होता है। इसीलिए हम पाते हैं कि ज़्यादातर आविष्कारक एकान्तप्रिय रहे हैं। स्वयं में खोए और बेपरवाह, जिसे समाज अक्सर लापरवाह कहता रहा है। जबकि एकान्त में मानव मस्तिष्क उर्वरा हो उठता है। एकाग्र होता है। बिना किसी तनाव के कार्य करने में समर्थ होता है।
इसके ठीक उलट जब हम चारों तरफ भीड़ से घिरे होते हैं तो हम पाते हैं कि लोग हमें अपने-अपने स्वभाव अनुसार दबाव में रखकर काम कराना चाहते हैं। हम अपने शैशव से ही दबाव में कार्य करने की संस्कृति विकसित कर रहे होते हैं। जो मानव मस्तिष्क के लिए निश्चित घातक है। निरन्तर लोगों द्वारा आकलन हो रहा होता है। जबकि हम समाज में रहकर भी यही चाहते हैं कि हमारा मूल्यांकन तो लेकिन आकलन न हो। इसी भय से व्यक्ति भावनात्मक रूप से बिखरने लगता है। वह खंडित व्यक्तित्व हताशा में स्वयं को नष्ट करने की तरफ अग्रसर हो उठता है।
आप को पता है? यह मानव जीवन बेहद ख़ूबसूरत है। कोई मानव स्वयं को और अपने जीवन को नष्ट करने की सोच भी नहीं पाता। ऐसे में, कल्पना कीजिए कि समाज ने उसे कितना प्रताड़ित किया होगा, जब कोई आत्महत्या जैसा दुर्लभतम कदम उठाता होगा। तो इस स्थिति से बचने के लिए हमें करना क्या है? उत्तर सरल है कि बस, उनको जीने के अवसर दे दीजिए। मत लादिए अपनी इच्छाएँ, अपनी कुंठाएँ, अपनी आशाएँ, अपने सपने किसी पर। अरे उनके खुद के भी तो कोई अरमान होगें? क्यों न हम उनके सहायक बनें। सहयोगी बनें। ढूँढ लें वे अपनी खुशी और जी लें।
वे हमसे चाहते क्या हैं? बस उन्हें कोई सुन ले बिना आकलन (जज) किए। बस सुने, सुनने वाले में कोई उत्सुकता न हो, न उदासीनता हो, हाँ जीवन्तता अवश्य हो। वे कह सकें अपने सभी पाप, सभी पुण्य, लेकिन कोई प्रश्न न हो उनसे, न हो कोई सलाह। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मूर्खताएँ पता होती हैं। इसलिए उन्हें सलाह नहीं चाहिए। चाहिए बस इतना कि वे अपने मन का बोझ उतार सकें, किसी जीवन्त के सामने और अपने मन को हल्का कर सकें।
जब हम अपने आसपास के लोगों के लिए, अपनों के लिए यह कर पाएँगे तो वे जीवन नष्ट करने के बारे में नहीं सोचेंगे। वे मजबूत बन सकेंगे और अपनी ऊर्जा से समाज में सार्थक योगदान देकर उसे बेहतर बना पाएँगे।
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)
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