संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 5/9/2021
हम सब अधूरे हैं। आधे-अधूरे काम करते हैं। अधूरेपन में जीते हैं। अधूरे रहकर ही जीवन समाप्त करते हैं। अपने अधूरेपन के कारण ही जीवन मुकम्मल हो पाता है।
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हम अपने आपको इस क़दर अधूरा छोड़ते हैं कि किसी न किसी को उसे पूरा करना पड़ता है। जो पूरा करने का मुग़ालता रखता है, वह भी बहुत संत्रास में जीता है। पूरापन असल में कुछ होता ही नहीं है।
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जो चीज़ें अपने भव्य और सम्पूर्ण स्वरूप में दिखाई देती हैं, वह किसी समय-सीमा और हड़बड़ाहट का अन्तिम परिणाम नहीं बल्कि किसी तरह से ख़त्म कर नए अधूरे को थामने की पुरज़ोर कोशिश है। क्योंकि मानव मन एक ही जगह लम्बे समय तक टिक नहीं सकता।
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अपने अधूरेपन को अन्तत: एक दिन पूर्णता का मुलम्मा चढ़ाकर हमें मुक्त होना ही पड़ता है। इसलिए नहीं कि हम कुछ भी पूरा नहीं कर सकते, बल्कि इसलिए कि पुरापन सापेक्ष है। हर व्यक्ति के लिए अलग होता है। इसलिए आप जितना पूरा होने की कोशिश करते हैं, उतने ही रीतते जाते हैं।
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पूर्णता को लेकर वेद, ऋचाओं से लेकर सम्पूर्णतावादियों, जेस्टॉल्डवादियों और शुचिता के नियामकों ने बहुत कुछ कहा है। पर जितना इसे पढ़ो, समझो और आत्मसात् करने का प्रयास करो, वह अपूर्ण और अधूरा लगता है। इसलिए झटके में जो हो जाता है, वही पूर्ण है।
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हम सब जीवन में एक समय के बाद उद्देश्यहीन हो जाते हैं। या हमारे पास करने को कुछ नहीं होता। हर जगह से विलोपित किए जाने का दुख सालता है और मुक्त कर दिए जाने का अहसास शिद्दत से यह याद दिलाता है कि अधूरेपन का पूर्ण इलाज़ एक ही है और हम उद्दंड आस में दिवास्वप्न देखते हकीकत भूल जाते हैं।
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जब लगे कि अब सब कुछ खत्म हो गया है, सब कुछ नष्ट कर दिया है और रिवीजन की संभावना वैसे ही जीवन में सम्भव नहीं तो जीवन भी ख़त्म कर देना चाहिए। अपने साथ अपने वे सारे अधूरेपन ख़त्म कर देना चाहिए, जिनसे हम पूर्णता की उम्मीद करते हैं।
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यहाँ कोई किसी को याद नहीं रखता, न रखना चाहता है और ऱखना भी नहीं चाहिए। क्योंकि हम सब पर संसार के दैनन्दिन बोझों के अलावा एक अदृश्य बोझ से तारी हैं, जिसको मुक्त हुए बिना नहीं समझा जा सकता। इसलिए अधूरेपन की चिन्ता न करें। सब अपने-अपने हिसाब से सब कुछ पूर्ण कर लेंगे। संसार के उद्यम से कोई भी पूर्ण होता तो यह बेहद थकाऊ उबाऊ और असहनीय पीड़ा कैसे व्यक्त होती!
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किसी को यहाँ स्थाई नहीं रहना है। सबको आना-जाना है, तो कैसे कोई किसी को पूर्ण करने का दावा कर सकता है। बेहतर है, निर्मोही हो जाओ, असंपृक्त हो जाओ। यही शेष रखेगा चेतना को अन्तिम समय तक।
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अधूरेपन में जीवन है। यही सबसे बड़ा सच है। जो लोग आपको अधूरा कहते हैं, पूरा करने का श्रेय लेकर दर्प से भर जाते हैं, वे भूलते हैं कि पूर्ण करने या होने के दावे भी किसी और पर अवलम्बित हैं। इसीलिए यह घोर आसन्न संकट है कि हम पूर्ण किसे मानें?
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अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक वायवीय कल्पना।
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 26वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
25वीं कड़ी : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24वीं कड़ी : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23वीं कड़ी : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22वीं कड़ी : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा
21वीं कड़ी : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो
20वीं कड़ी : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं
19वीं कड़ी : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें!
18वीं कड़ी : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा
17वीं कड़ी : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!
16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?
15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!
जय जय श्री राधे https://www.youtube.com/watch?v=ih_0H3p6ogU Read More
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