टीम डायरी
आज रंग-पंचमी है। होली के उत्सव का चरम। इस मौके पर एक खूबसूरत कवित्त की कुछ लाइनें देखिए…
होरी खेलै नन्द को लाल, मैं वारी-वारी।
रंग भरी पिचकारी, मारत है बनवारी।।
होरी खेलै नन्द को लाल…
ग्वाल-ग्वालिन और संग सखी राधा।
रंग, गुलाल उड़ावत बनवारी।।
होरी खेलै नन्द को लाल, मै वारी-वारी
होली खेलै नन्द को लाल…
अब इसी कवित्त को नीचे दिए वीडियो में बाँसुरी की धुन (राग-काफी में) पर सुनिएगा…
इसके बाद इस कवित्त, इस धुन के भाव को आत्मसात् करना चाहें, तो इसका भावार्थ समझिएगा…
ब्रज-मंडल की कोई सखी है, ग्वालन है। वह नन्द के लाल श्रीकृष्ण को होली खेलते देख रही है। उस दृश्य पर न्योछावर हुई जाती है। वारी-वारी जा रही है। और दृश्य क्या है? श्रीकृष्ण हैं। उनके साथ ग्वाल हैं। ग्वालिनें हैं। साथ में श्रीकृष्ण की भी आराध्य राधारानी हैं। सब मिलकर ब्रज की रज को रंग, गुलाल से सराबोर किए देते हैं। आसमान में रंग, गुलाल उड़ा-उड़ाकर उसे तमाम रंगों में रंगे देते हैं। अहा! कितना मनोरम दृश्य!
बस, पाँच मिनट का वक्त दीजिएगा। खुद से लेकर, अपने आपको ही। इसमें से थोड़ा सा समय इस कवित्त को पढ़ने समझने और बाकी इस धुन को सुनने के लिए। यकीन कीजिए, आपकी ऑंखों के सामने भी यह दृश्य यूँ ही उपस्थित हो जाएगा, जैसा लिखा है। ब्रज की रंग-पंचमी का उल्लास सामने दिखने लगेगा। वहीं पर जहाँ आप हैं, इस वक्त।
रंग-उत्सव की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
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