शास्त्रीय संगीत में ‘जॉनी-जॉनी यस पापा’ : ये दो वीडियो बताएँगे कि ‘हल्का’ ही क्यों उड़ता है!

टीम डायरी

भाषा, साहित्य, संगीत, संस्कृति, परम्पराओं आदि से सरोकार रखने और संजीदा समझे जाने वाले के लोगों के बीच एक सवाल अक्सर होता है। ये कि मीडिया और सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों में ‘हल्का’ और ‘नकली’, क़िस्म का कंटेंट (सामग्री) ही क्यों देखा-सुना जाता है? इस सवाल की पुख़्तगी के लिए ये नीचे दिए दो वीडियो देख सकते हैं। 

पहले वीडियो में कलाकार कौन हैं? इस बारे में अब तक जानकारी मिल नहीं सकी है। लेकिन इन्हें देखकर यह अंदाज़ा ज़रूर लगाया जा सकता है कि ये और इनके दल के सभी सदस्य भारत के ही किसी हिस्से में रहते हैं। अपने स्तर पर संगीत सीखने-सिखाने का काम करते होंगे। या किसी रूप में संगीत से जुड़े ज़रूर हाेंगे। हालाँकि इतने से इनकी अब तक आजीविका ही चलती रही होगी। मगर अभी अचानक कुछेक दिनों से ये देशभर में अपने एक कारनामे की वजह से चर्चित हो गए हैं। इन्होंने नर्सरी में पढ़ाई जाने वाली अंग्रेजी की कविता ‘जॉनी-जॉनी यस पापा’ को हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के राग ‘मालकौंस’ में गाया है। बाक़ायदा, आलाप, तानें और तिहाईयों के साथ। इन्होंने या इनके किसी साथी ने इस कारनामे को छह मिनट के वीडियो में सँजोया और सोशल मीडिया पर डाल दिया। तब से तमाम लोग इनके वीडियो को साझा कर चुके हैं। लाखों लोग देखकर आनन्द ले रहे हैं और इन कलाकार की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ रहे हैं। क्योंकि अधिकांश लोगों को लगता है कि इन्होंने बड़ा कमाल का काम कर दिखाया है। 

जबकि इन्होंने गम्भीर और शान्त प्रकृति वाले तथा मन को सुकून देने वाले राग मालकौंस की सुन्दरता का जो तिया-पाँचा हो सकता था, वह तो किया ही, सुरों को ठीक से लगाने पर भी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। यह सब इनकी प्राथमिकता में भी नहीं रहा होगा। इन्हें सिर्फ़ मज़े लेने और देने थे। नाम अर्जित करने की बरसों की साध पूरी करनी थी। वह मक़सद पूरा हो गया। इसीलिए इनके चेहरे पर परम सन्तुष्टि का भाव प्रमुखता से दिख रहा है। 

अब देखिए दूसरा वीडियो। ये महज एक मिनट का है। इसे बनाया है आदित्य रोहित ने। वही कविता- ‘जॉनी-जॉनी यस पापा’। वही राग- ‘मालकौंस’। इस वीडियो को आदित्य ने अपने यूट्यूब चैनल ‘इंडियनक्लासिकलबर्डो’ पर  20 सितम्बर 2018 को साझा किया था। मतलब इसके मूल संगीतकार यही हैं। इस वीडियो को साझा करते हुए आदित्य ने दलील दी थी कि बीते “कुछ समय में मेरे कुछ निकट सम्बन्धी गुज़र गए। इस वजह से हुए दु:ख को कम करने के लिए उन्होंने यह हल्का-फुल्का प्रयोग किया। उनका इरादा संगीत की अवमानना करने का नहीं है। 

उन्होंने एक मिनट के अपने इस प्रयास में राग को ठीक तरह से गाने की कोशिश की। साथ ही सुरों को भी अच्छे से लगाने का प्रयास किया है। इसका कारण ये है कि आदित्य ने ख़ुद हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के ग्वालियर और मेवाती घराने के तीन-तीन बड़े गुरुओं से संगीत की शिक्षा ली है। मेवाती घराने से ही ताल्लुक रखने वाले स्वर्गीय पंडित जसराज की बेटी दुर्गा जसराज की ओर से आयोजित कार्यक्रमों में लगातार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। पंडित जसराज द्वारा आयोजित एक संगीत महोत्सव में भी आदित्य हिस्सा ले चुके हैं। खुद अमेरिका में रहते हैं। लेकिन हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानी संगीत के संस्कारों के प्रति बेपरवा नहीं लगते। शायद इसीलिए इन्होंने अपना ‘जॉनी-जॉनी’ वाला प्रयोग महज एक मिनट में ही ख़त्म कर दिया। जबकि ये उसे कितना भी बढ़ा सकते थे।   

आदित्य के वीडियो को बहुत लोगों ने देखा भी नहीं। महज 687 बार ही इसे देखा गया। ख़ुद आदित्य भी अब यूट्यूब पर बहुत सक्रिय नहीं दिखते। लेकिन उन्होंने वह सिरा ज़रूर छोड़ दिया, जिसे पकड़कर सस्ती लोकप्रियता की चाह रखने वाले लोग कभी उसका दुरुपयोग कर सकते थे। और जो किया भी गया। लगातार सुर्खियाँ बटोर रहे, हाथों-हाथ लिए जा रहे पहले वाले वीडियाे को इस बात का प्रमाण समझा जा सकता है। 

अब यहीं से उस सवाल ज़वाब मिलना शुरू होता है कि मीडिया और सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों में ‘हल्का’ और ‘नकली’, क़िस्म का कंटेंट (सामग्री) ही क्यों देखा-सुना जाता है? दरअस्ल, मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यमों पर समय बिताने वाले लोग एक बड़ी भारी भीड़ का हिस्सा हैं। ‘भीड़’, जो ‘भेड़’ की तरह चलती है। सबसे आगे चलने वाली कोई भेड़ उसे किसी रास्ते पर ले जाती है और वह विवेकशून्य, विचारशून्य, दृष्टिशून्य होकर उसके पीछे चल देती है। विवेक, विचार और दृष्टि को माध्यम बनाकर कुछ देखने-समझने की इस भीड़ में से किसी के पास फुर्सत भी नहीं होती। बल्कि वह तो अपनी भेड़चाल में ही इतनी व्यस्त और पस्त रहती है कि उसे कुछ वैसा ही ज़्यादा जमता है, जिसो देखने, सुनने, समझने में उसे दिमाग़ लगाना ही न पड़े। और, मज़ा पूरा मिले।

लिहाज़ा, इन हालात में जो लोग ख़ुद को संज़ीदा और ज़िम्मेदार मानें, उनकी ज़िम्मेदारी बनती है कि वे ‘भीड़’ को सही सिरे पकड़ाएँ। अपने हल्के-फुल्के मनरंजन के लिए भी ऐसा कोई सिरा भीड़ के लिए न छोड़ें, जिसका वह दुरुपयोग कर सके। या जिसे पकड़कर वह निरर्थक रास्तों पर आगे जाए। जैसा कि आदित्य के हाथों हो गया।

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Neelesh Dwivedi

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