टीम डायरी
राजस्थान का मामला है। अभी आठ मई को देशभर की सुर्खियों में आया। अपनी संस्कृति, परम्पराओं, महलों, किलों, और दूर तक फैले रेगिस्तान के लिए अलग पहचान रखने वाले इस प्रदेश में एक जिला है जालौर। यहाँ से बड़ी तादाद में लोग हिन्दुस्तान से बाहर दूसरे देशों में जा बसे हैं, ऐसा बताया जाता है। इसे दूसरे अर्थ में कहें तो यहाँ के लोगों ने तरक़्क़ी की राह पर चलते हुए दूसरे शहरों, और दीगर मुल्क़ों तक में अपना घर बना लिया है। हालाँकि उन्होंने अपने गाँव, अपने मुल्क़ को कभी भुलाया नहीं। बल्कि क्षमताएँ हासिल करने के बाद हमेशा अपनी मिट्टी को कुछ वापस लौटाने की मंशा ही रखी। जैसे भी बन पड़े। सो, इसके लिए पहले ये लोग माली मदद दिया करते थे। जैसे- कहीं स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, सामुदायिक भवन बनना है तो उसके लिए पैसे दे दिए।
अलबत्ता, अब इन लोगों इससे भी बेहतर और नया तरीक़ा निकाला है। जो ख़बर सामने आई, उसके मुताबिक, जालौर से दूर-देश में जाकर बसे लोग अब अपने-अपने गाँवों में सीधे तौर पर स्कूल भवन आदि बनवा रहे हैं। उनके बीच एक तरह की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है, इसे लेकर। और इस प्रतिस्पर्धा के ज़रिए देहातों में करोड़ों की लागत के विद्यालय-भवन बन रहे हैं। वह भी पूरी सुविधाओं से युक्त। और इतना ही नहीं, भवन बनवाने के बाद संचालन के लिए इन्हें सरकार को सौंप दिया जा रहा है। मतलब सरकारी स्कूलों की कक्षाएँ उन आलीशान इमारतों में लगती हैं। इसकी कुछ मिसालें देखिए। जालौर से भीनमाल के बीच आकोली नाम की जगह है। वहाँ जीतेंद्र खींवेसरा 2.20 करोड़ रुपए की लागत से सरकारी स्कूल की इमारत बनवा रहे हैं, माता-पिता की स्मृति में।
इसी तरह हाड़ेचा में बाबूलाल भंसाली 3.05 करोड़ की लागत से स्कूल भवन बनवाने वाले हैं। वे इससे पहले गाँव में अस्पताल भी बनवा चुके हैं। साथ ही, दो स्कूलों की आलीशान इमारतें भी। वैसे, इस तरह के प्रयास सिर्फ़ निजी तौर पर ही नहीं, संस्थागत स्तर पर भी किए जा रहे हैं। मसलन- रेवतड़ा गाँव में पाबुदेवी गोराजी ट्रस्ट 4.16 करोड़ रुपए की लागत से स्कूल भवन बनवा रहा है। जबकि भुंडवा में श्वेताम्बर जैन समुदाय की एक संस्था 3.30 करोड़ रुपए की लागत से ऐसी ही इमारत बनवा रही है। इस तरह के दर्जनभर से अधिक उदाहरण हैं। और ये इमारतें सिर्फ़ ईंट-गारे के ढाँचे बस नहीं हैं। पढ़ाई के लिए डिजिटल-बोर्ड और बिजली के लिए सोलर-प्लांट जैसी सुविधाओं से भी इन इमारतों को लैस किया जा रहा है। मक़सद स्पष्ट है, ऐसा करने वालों का।
इस इलाक़े से निकलकर इन दिनों मुम्बई में कारोबार कर रहे सुभाष राजपुरोहित जैसा कि बताते हैं, “इन्हीं गाँवों के स्कूलों से पढ़कर हम जैसे लोग निकले हैं। हालाँकि जब हम पढ़ते थे तो सुविधाएँ नहीं थीं। उससे हमें किस तरह संघर्ष करना पड़ा, हम ही जानते हैं। सो, अब हमारी इच्छा इतनी है कि हमारी आने वाली पीढ़ी को वह संघर्ष न करना पड़े। उन्हें सभी सुविधाओं से युक्त अच्छे स्कूल मिलना ही चाहिए। इसीलिए यह तरीक़ा निकाला है, जो माली-मदद देने से कहीं अधिक कारगर रहा अब तक।” कारगर रहे भी क्यों न? आख़िर इस तरह के प्रयासों में मदद के लिए मिले पैसों की बन्दरबाँट की सम्भावना जो न्यूनतम रहती है। सरकारें भी चाहें तो इन प्रयासों से प्रेरणा ले सकती हैं कि लोगों को मुफ़्त की रेवड़ियों बाँटने से बेहतर है, उन्हें सुविधाएँ देना!
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