समीर, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 11/12/2020
परलोक और पुनर्जन्म- दो ऐसी बातें हैं, जिनके बिना धर्म की गहनता को समझना सम्भव नहीं है। विज्ञान या तर्क से इसे न तो साबित कर सकते हैं और न ही ख़ारिज़। विज्ञान हालाँकि मानता है कि पदार्थ और ऊर्जा न पैदा होते हैं, न नष्ट। उनका बस रूपान्तरण होता रहता है। वह ये भी मानता है कि विचार, मनोभाव, विश्वास आदि के साथ मानव शरीर ऊर्जा की प्रक्रिया मात्र है। मानव ऊर्जा क्षेत्र के प्रयोगों में यह देखा जा सकता है।
धर्म भी यही सब बातें कहता है। लेकिन दूसरे शब्दों में। इसीलिए धर्म की कही ऐसी बातों से विज्ञान को समस्या हो जाया करती है। स्वाभाविक भी है क्योंकि वह भौतिकवादी, अब्राहिमी सांस्कृतिक सोच की सीमा से बाहर देख नहीं पाता। मगर जब कोई सामर्थ्यवान महापुरुष ऐसे मामले में करुणावश उतरता है तो वह परलोक, पुनर्जन्म के सत्य को हस्तामलक (हाथ में रखे आँवले के समान) दिखा देता है। इतना ही नहीं वह इसके साथ अपने किसी सुपात्र जिज्ञासु के जीवन के रूपान्तरण की भूमिका भी रच देता है।
यह भूमिका उस अनुभव की पृष्ठभूमि है, जो मुझे इस बार कार्तिक पूर्णिमा पर वृन्दावन में हुआ। मैं वहाँ सद्गुरुदेव भगवान का चरणाश्रय पाकर आनन्दविभोर था। उसी दौरान उन्हीं के श्रीमुख से कहा गया एक आख्यान सुना। कोई आधी सदी पुरानी बात है। एक बौद्ध लामा थे, जिनका किसी कारणवश परलोक और पुनर्जन्म में विश्वास नहीं था। वह कोरे पंडित नहीं थे। पारम्परिक बौद्ध शास्त्रों के वे अच्छे जानकार थे। साथ ही सच्चे जिज्ञासु भी थे। शायद इसलिए वह भारत आए। यहाँ किसी ने उन्हें त्रिकालज्ञ आत्मज्ञ महापुरुष स्वामी रामानुजदास जी से मिलने को कहा। उन लामा का यह अभ्यास था कि वे पंडित, विद्वानों से मिलकर परलोक और पुनर्जन्म के सम्बन्ध में वाद-विवाद करते। भीषण तर्क-वितर्क करते थे।
लामा इसी पूर्वअभ्यासवश तैयार होकर स्वामी रामानुजदास जी के पास पहुँचे। स्वामी जी ने उन्हें प्रेम से बैठने के लिए आसन दिया। उनकी ओर करुण नेत्रों से देखा और उनके कुछ कहने से पहले ही बताना शुरू कर दिया, “आपका नाम अमुक है। आप अमुक स्थान से आए हैं। मार्ग में आप इन स्थानों से होते हुए यहाँ पहुँचे हैं। आपकी इतनी आयु, शिक्षा-दीक्षा आदि हो चुकी है।” …और इस तरह उन लामा के जीवन की कई ज्ञात-अज्ञात बातें स्वामी जी ने बता दीं।
लामा भारी आश्चर्य में पड़ चुके थे। पर वे कुछ समझते, उससे पहले ही स्वामी जी फिर बताने लगे, “तुम्हारा गाँव पहाड़ में अमुक स्थान पर है। घर इस प्रकार का है। घर में इतने सदस्य हैं। घर में एक गाय है, जो बच्चा देने वाली है। अब तुम ध्यान से सुनो। चार महीने बाद वह गौ एक बछिया देगी। उस बछिया को तुम लोग घर के सामने एक खूँटे पर बाँधा करोगे। लेकिन बछिया अल्पायु होगी। कुछ समय बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगी। उसके बाद तुम्हारे घर एक लड़की जन्म लेगी। वह बछिया ही तुम्हारे घर पोती के रूप में आएगी। जब तुम्हारी पोती एक साल की होगी तो वह बछिया को बाँधने वाली खूँटी के पास जाकर गोल-गोल घूमा करेगी। रस्सी मुँह में डाल कर खूब रोया करेगी।” इसके बाद स्वामी जी ने लामा से कहा, “तुम्हारे लिए इतना यथेष्ट है। अब तुम जाओ। इन बातों की सत्यता परखना। यदि सही निकलें तो आकर मुझे बताना।”
लोग बताते हैं कि कुछ चार साल बाद ही वह लामा फिर भारत आए। इस बार वे वाद-विवाद या तर्क-वितर्क के मानस से नहीं आए थे। समर्पण के भाव से आए थे। यहाँ जब उनका सामना स्वामी जी से हुआ तो वे उनके चरणों में गिर कर फूट-फूट कर रोने लगे। महात्मा जी की बताई हर बात उन लामा के सामने अक्षरश: सत्य सिद्ध हुई थी। इसके बाद वे स्वामी जी के पास ही रह गए। बाद में उनके अनुगत बन कर उच्चकोटि के साधक बने।
(समीर भोपाल में रहते हैं। एक निजी कम्पनी में काम करते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के लिए नियमित रूप से लिखते भी हैं। उन्होंने यह लेख व्हाट्स ऐप सन्देश के जरिए भेजा है।)
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