‘न्याय की देवी’ की अब आँखें खोलकर न्याय करेगी…, क्या सच?

टीम डायरी

हिन्दुस्तान में ‘न्याय की देवी’ ने अपना स्वरूप बदल लिया है। बरसों-बरस बाद प्रतीक बदल गए हैं। अब ‘न्याय की देवी’ के हाथ में तलवार नहीं है। उसकी जगह उसने संविधान की पुस्तक थाम ली है। आँखों पर अब तक बाँधी पट्‌टी भी हटा दी है। आँखें खोल ली हैं। इस स्वरूप को अपनाने के साथ उसने घोषणा की है कि हिन्दुस्तान का कानून अब अन्धा नहीं रहा। अब यहाँ खुली आँखों से, संविधान के अनुसार न्याय किया जाएगा। क्या सच में? कितना अचछा हो, अगर यह नया प्रतीक, नया उद्घोष हिन्दुस्तान के न्याय-तंत्र में आमूलचूल बदलाव ला सके। उम्मीद तो कर ही सकते हैं। उम्मीद करने में कोई बुराई नहीं। आखिर उम्मीद पर ही तो दुनिया क़ायम है।

अलबत्ता, उम्मीदें तो पहले भी लगाकर रखी ही थीं, हर हिन्दुस्तानी ने। हिन्दुस्तान में अंग्रेजों ने जब अपनी तरह की न्याय-व्यवस्था लागू की थी तो बहुत उम्मीदें लगाई थीं उससे। इसलिए क्योंकि हिन्दुस्तानियों को बताया गया था कि देखो, ‘न्याय की देवी’ ने अपनी आँखों पर पट्‌टी बाँध रखी है। इसका अर्थ यह है कि वह किसी को ‘मुँहदेखा न्याय’ नहीं देगी। अपने-पराए में भेद नहीं करेगी। न्याय के तराजू पर सबको बराबरी से तौलेगी। फिर न्याय करेगी। अपराधियों को दंड देगी। सबने इस बात पर भरोसा किया। लेकिन वास्तव में हुआ क्या?  

न्याय दिलाने की ज़िम्मेदारी उठाने वालों ने ही न्याय की सरेराह ख़रीद-फ़रोख़्त शुरू कर दी। सच को झूठ और झूठ को सच में बदलना शुरू कर दिया। ‘न्याय की देवी’ की आँखों में बँधी पट्‌टी का पूरा लाभ उठाकर ये लोग झूठे गवाह, झूठे सबूत बनाने लगे। झूठे बहाने बनाते गए, ताकि किसी मामले को अगर लम्बे समय तक टालना है, लटकाए रखना है, तो वह किया जा सके। यह सब करते-करते दशकों-दशक बीत गए। अदालतों में मुक़दमों के ढेर लग गए। न्याय, उस ढेर में दबकर दम तोड़ता रहा और आम आदमी का दम घुटता रहा। 

एक नहीं, हजारों मामले इस बात के प्रमाण हैं कि हिन्दुस्तान में अब तक प्रभावशाली लोगों ने हमेशा न्याय का मख़ौल उड़ाया है। उसे अपनी तरह से तोड़ा-मरोड़ा है। फ़ैसला सुनाने वाले न्यायाधीशों को इस बारे में पता होने के बावज़ूद वे इस कुचक्र को चाहकर भी तोड़ नहीं पाए। क्यों? क्योंकि ‘न्याय की देवी’ की आँखों में तो पट्‌टी बँधी थी न। उसके तराज़ू पर जिसने भी सच्चे या बने-बनाए सबूत रख दिए, पलड़ा उसकी तरफ़ झुक गया। अलबत्ता, अब तो आँखों की पट्‌टी हटा दी है ‘न्याय की देवी’ ने। तो क्या अब न्याय-तंत्र के साथ छेड़-छाड़, उसके साथ तोड़-मरोड़ करने का कुचक्र टूटेगा? क्या कोई दावे के साथ इस बारे में कह सकता है कि “हाँ, टूटेगा?” 

यक़ीन जानिए, अभी शायद ही कोई पुरज़ोर बुलन्दी से यह ‘हाँ’ कह पाए। हमारे ही न्याय-तंत्र से हमारे सीनों पर लगे घाव गहरे हैं। इतनी आसानी से नहीं भरेंगे। महज़ प्रतीक बदलने से तो बिल्कुल नहीं। इसके लिए न्याय-व्यवस्था के पुरोधाओं को आचरण से साबित करना होगा कि हिन्दुस्तान में ‘न्याय की देवी’ ने सच में अब आँखें खोल ली हैं। वह सबूतों के साथ छेड़छाड़ की कुत्सित क़ोशिशों को देख सकती हैं। गवाहों को प्रभावित करने या नकली गवाहों को पेश करने की कुटिल चालों को समझ सकती है। न्याय प्रक्रिया को लटकाने के लिए की जाने वाली पैंतरेबाज़ियों को परख सकती है। और ऐसे कुकृत्यों को रोकने के लिए परिणामकारी क़दम भी उठा सकती है। 

अगर ऐसा हुआ, तभी मानिए कि सच में, ‘न्याय की देवी’ की आँखें खुली हैं। वरना तो अन्धे आँखवाले भी होते ही हैं।

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Neelesh Dwivedi

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