नीलेश द्विवेदी, भोपाल, मध्य प्रदेश
बीते कुछ समय से देश की सियासत में मची उछलकूद देखकर कुछेक सालों पहले का एक वाकिआ याद आ गया। तब किसी ने दफ़्तर में इसरार किया था, ‘आप संगीत सीखते हैं। कभी कुछ सुनाइए हमें। अपनी कला का प्रदर्शन हमारे सामने भी कीजिए।” उन दिनों संगीत सीखने का शुरुआती दौर था। ज़्यादा कुछ आता नहीं था। लिहाज़ा, उन्हें टालने के लिए यूँ ही मज़ाक में कह दिया, “जब राग ‘नट’ और ‘दरबारी’ सीख लूँगा तो ज़रूर आप लोगों के सामने अपनी कला का प्रदर्शन करूँगा।” यह सुनकर वे हँसकर आगे चल दिए।
हालाँकि बाद के वर्षों में दफ़्तर की ‘दरबारी संस्कृति’ और बाहर सियासत में, विशेष तौर पर, नेताओं के नटों के समान करतब देखकर लगने लगा कि उन साहब को दिया ज़वाब तो अस्ल में व्यंग्य जैसा बन पड़ा था। क्योंकि सच भी तो यही है। और ये सच भी दशकों, सदियों से बना हुआ है।
वरिष्ठ साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल जी को याद कीजिए। आज से 56 साल पहले (1968) उन्होंने अपनी कालजयी कृति ‘राग दरबारी’ लिखी थी। उसका सार-संक्षेप यही तो है कि अगर भ्रष्ट व्यवस्था में किसी को फिट होना है, सफल होना है तो ‘राग दरबारी’ में सिद्धि पाना अनिवार्य है। ऐसे ही, इसके कुछ सौ साल पहले जाइए। मुगल बादशाह अकबर का दौर। उस समय के बारे में जैसा कहते हैं, मियाँ तानसेन ने भी सबसे पहली बार ‘राग दरबारी’ बादशाह और उनके दरबारियों को खुश करने के लिए ही गाया था। वे खुश हुए भी यक़ीनन।
लिहाज़ा, सफलता के इच्छुक अभ्यर्थी ‘राग दरबारी’ को सूत्र की तरह गाँठ बाँध लें तो ‘दरबार’ किसी का भी हो, मंत्री का, नेता का, अफ़सर का, सम्पादक का, कम्पनी के मालिक का, पेशेवर सफलता पक्की समझें।
इसी तरह, बीते कुछ सालों में ‘राग नट’ ने भी प्रतिष्ठा प्राप्त की है। सियासत में सफलता की यह गारंटी है। इसे कुछ हालिया उदाहरणों से बेहतर समझिए। बीते महीने ही बिहार और झारखंड में नेताओं ने ‘नट-राग’ में दक्ष करतबियों की तरह करतब दिखाए। इससे बिहार में देखते-देखते राज्य सरकार का रंग बदलकर ’केसरिया’ हो गया। जबकि झारखंड सूबे के मुखिया सरकार का रंग बदलने से बचाने के लिए अपनी ‘माया’ से अदृश्य ही हो गए। वह भी पूरे तीन दिन के लिए। उन्होंने दिल्ली में डूबा साधा और सीधे राँची में उबरे।
इस दौरान उनकी ‘माया’ के असर से तमाम लोगों के चेहरों पर विस्मयादिबोधक चिह्न ही नज़र आया। और वे तमाम करतब दिखाते हुए अपनी सरकार को बचा ले गए। मगर ख़ुद को न बचा सके। अलबत्ता, एक अन्य सूबे के मुखिया के लिए सुराग ज़रूर छोड़ गए। सो, इन दिनों वे भी बचने-बचाने के करतब दिखाने में लगे हैं। वह भी मुल्क के वज़ीर-ए-आज़म की नाक के ठीक नीचे दिल्ली में रहकर।
मुल्क के पूरब में बंगाल सूबे की मुखिया हैं। वे डंडा हाथ में लेकर पतली रस्सी पर चलते हुए सन्तुलन साध रही हैं। अकेले ही। उनका कोई दोष भी नहीं ज़्यादा। आख़िर पतली रस्सी पर एक से भले दो तो हो नहीं सकते, एक से बुरे ही दो होंगे, इसीलिए। इसी तरह, सूदूर उत्तर में जम्मू-कश्मीर की तरफ झाँकने पर मालूम चला कि वहाँ के एक बड़े, बुज़ुर्ग सियासत-दाँ ने साहबज़ादे के साथ एक खूँटे को छोड़कर छलाँग लगाई है। रुख़ दूसरे खूँटे की ओर है। अभी बीच में हैं। कुछेक दिन-महीनों में शायद दूसरा खूँटा थाम लें। इस सबके बीच भला छोटू, मँझोलू, टाइप नेता क्यों पीछे रहें। सो, कईएक वे भी गोल छल्ले में ख़ुद को दोहरा फँसाकर इधर-उधर लुढ़क रहे हैं।
और जनता सियासी नटों के ‘नट-राग’ प्रदर्शन का भरपूर आनन्द ले रही है। हालाँकि बेहतर होता अगर आनन्द के रसास्वादन के बीच जनता याद रख लेती कि लोकतंत्र की अस्ल ‘जनार्दन’ वही है। जल्दी उसके लिए भी मौका (चुनाव) आने वाला है, जब वह युद्ध जैसी स्थितियों के बीच गाए जाने वाले ‘मारू राग’ का प्रदर्शन कर सकती है। ऐसे ‘सियासी नटों’ को सियासत के मैदान से खदेड़ सकती है। वरना यह भी तय मानिए कि ‘सियासी नट’ चुनाव जीतने के बाद आम जनता को ‘नट-राग’ के प्रदर्शन पर मज़बूर करेंगे ही।
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