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चिट्ठी-पत्री आज भी पढ़ी जाती हैं, बशर्ते दिल से लिखी जाएँ…ये प्रतिक्रियाएँ पढ़िए!

टीम डायरी

महात्मा गाँधी कहा करते थे, “पत्र लिखना भी एक कला है। मुझे पत्र लिखना है, और उसमें सत्य ही लिखना है तथा प्रेम उड़ेल देना है, ऐसा सोच कर लिखने बैठोगे तो सुन्दर पत्र ही लिखोगे।” हालाँकि, फिर भी संवाद-संचार की आधुनिक तकनीकों ने चिट्ठी-पत्री का सिलसिला तोड़ दिया। लोगों ने लिखना बन्द कर दिया। पढ़ना भी बन्द हो गया। बल्कि समय के साथ-साथ दलीलें ये भी दी जाने लगीं कि चिट्ठी-पत्री पढ़ता कौन है? इतना समय किसके पास है? लेकिन ठहरिए ज़नाब। लोग पढ़ते हैं, जैसा महात्मा गाँधी ने कहा, वैसी लिखी जाएँ, तो चिट्ठियाँ पढ़ी जाती हैं।

#अपनीडिजिटलडायरी के साथी सतना के रहने वाले दीपक गौतम की चिट्ठियों ने इन दोनों बातों को साबित किया है कि चिट्ठी लिखना एक कला और अच्छे से लिखी जाए, तो वह ख़ूब पढ़ी जाती है, सराही भी जाती है। गाँव और गाँव को चाहने वालों के बीच उन्होंने जिस अभिनव परिकल्पना के साथ अपने पिछले दो पत्र लिखे, उन पर आईं पाठकों की प्रतिक्रियाएँ इस बात को साबित करती हैं। ख़ुद पढ़कर देख लीजिए ये प्रतिक्रियाएँ। 

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“सुन्दर भाव चित्र, धनाढ्य (प्रकृति से) ग्रामीण जीवन जीने की जिजीविषा। प्रकृति की भी एक आवाज़ होती है जो शहर के चिल्ल-पों ने दबा दी है। इससे शान्ति का, नीरवता का स्थान शोर ने अधिग्रहीत कर लिया है। लेकिन तुम्हारे पत्रों में गाँव का सुन्दर दर्शन व्याख्यायित ही नहीं, बल्कि उस जीवन की ओर खींचता है बुलाता है….।रोजगार का चक्रव्यूह कंक्रीट की भूलभुलैया में खींच लाया है। यहाँ की नगरीय सभ्यता के राग-रंग चमक-दमक ने किसी बंगालिन सा जादू कर रखा है। देह शहर में, आत्मा गाँव में गिरवी है। आत्मा अधिक ताक़तवर है, लेकिन देह के वशीभूत है, इसलिए वह अपनी विवशता की गाहे-बगाहे दस्तक देती है। संवेदनाएँ सुन लेती हैं, तो इस इस तरह के विचार आकार ले लेते हैं। वरना पत्थरों के नगर में आत्मा भी पत्थर की मूर्तिवत़ ताकती छटपटाई प्रतीक्षारत है। विश्वास से भरी है कि देह की निश्चित समय सीमा, जबकि उसकी कोई सीमा नहीं। बहरहाल तुम्हारा पत्र अपनी लय में पाठक को बाँधता है।

एक बात छूट गयी है, जोड़ सकते हो। गाँव के गाय और कुत्ते का जि़क्र नहीं है, जिनके बिना ग्रामीण मनुष्य जीवन मुमकिन नहीं।”

– श्रीश पांडे, वरिष्ठ पत्रकार, सतना, मध्य प्रदेश

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“क्या लिखा है सर! अद्भुत तरीके से आपने स्मृतियों को दर्ज़ किया है। इसे पढ़ते हुए मैं भी अपने बचपन के दिन और गाँव के अतीत में घूम आया। बेर, इमली, बेल और खजूर तोड़ने वाले सुनहरे दिन याद आ गए। आज हैरानी होती है कि देसी आम के लिए 50 फ़ीट ऊँचे पेड़ पर चढ़ जाते थे बिना डरे। लेकिन अब शहरी बुद्धि से सोचें तो वह मूर्खता सी लगती है। हालाँकि अब न आम के वे पुराने पेड़ बचे, न वैसा जीवट और जीवन की वह ऊर्जा व प्रकृति के सामंजस्य से उपजी व्यक्तित्व की सहजता। उन दिनों शहर के लोग पूछा करते थे कि कौन सी किताब पढ़ी अपनी खुशी के लिए। तब उनको कैसे समझाता कि जीवन की किताब ही सबसे जीवन्त किताब है। शुक्रिया, इसे दर्ज करने के लिए। इन पंक्तियों में जीवन दर्शन है, “कभी-कभी तो लगता है कि इसी परत के नीचे सारा संसार है। एक दिन इसी में ख़ाक हो जाना है। यहीं से धूल का, एक धुएँ से भरा गुबार सा उठेगा और फिर यहीं बैठ जाएगा। सब शान्त हो जाएगा। एकदम शान्त, वैसा ही जैसे उस पुराने शिवालय के कुण्ड का पानी शान्त है।”

– बृजेश सिंह, संचालक, एजुकेशन मिरर डॉट ओआरजी

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“वाह भाई साहब आपका भी ज़वाब नहीं क्या लिखते हैं! अति सुन्दर। प्राण निकालकर रख देते हैं। गाँव पर कितना गजब लिखा है। गाँव की याद आ गई। मैं और बहुत कुछ लिख नहीं सकता, आपके लिखे पर। जो भी है, अदभुत है।”

– डॉ गोविन्द विश्वकर्मा, चिकित्सक

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“बहुत सुन्दर लिखते हो भाई…ऐसे ही लिखते रहने की शक्ति सदा माँ शारदा बनाये रखें….यही कामना है। तुम्हारे लेखन में धार है। ये मैं केवल तुम्हारा मित्र होने के नाते नहीं बल्कि बतौर एक पाठक और पब्लिकेशन हाउस के अपने पुराने अनुभव के आधार पर ही कह रहा हूँ। बस, तुम्हें लगातार इस लिखावट को मांजते रहने की आवश्यकता है। इसलिए गाँव को जीते रहो और लिखते रहो, क्योंकि जिसने गाँव को जिया है और उसके प्रेम में है, वहीं गाँव पर इतना बारीक लिख सकता है।”

– सिद्धार्थ प्रताप सिंह, पूर्व संस्थापक सदस्य, यथार्थ पब्लिकेशन दिल्ली

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(नोट : ये तमाम प्रतिक्रियाएँ दीपक गौतम को सीधे प्राप्त हुईं हैं।) 

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