‘मायावी अंबा और शैतान’ : “मर जाने दो इसे”, ये पहले शब्द थे, जो उसके लिए निकाले गए

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

# उसे #

“मर जाने दो उसे”, ये पहले शब्द थे, जो जन्म के समय उसके लिए निकाले गए। हमें पता है क्योंकि हम वहीं थे। वे लोग जल्दी ही उसको और भी बुरा-बुरा बोलने वाले हैं। उसकी माँ की दुबली-पतली काया प्रसव पीड़ा से जल्दी ही छटपटाने लगी थी। पहला बच्चा लड़का हुआ था। वह एक घंटे में पैदा हो गया। चमकीली आँखों वाले उस लड़के के जन्म पर दाई को अच्छी खासी भेंट मिली थी। उसे एक सुंदर सा नाम भी दे दिया गया था, ‘नकुल’।

लेकिन, वह अब भी अपनी माँ की कोख में थी। और हम, उसके भीतर अटके हुए थे। उसके शरीर की नरम-मुलायम झिल्लियों के नीचे दबे, सोए हुए से। हम उसके दिमाग, उसके उन विचारों के साथ तालमेल बिठाने में लगे थे, जो अभी आकार ले ही रहे थे।

बाहर लाए जाने की कोशिशों के खिलाफ वह करीब डेढ़ हफ्ते तक माँ की कोख में ही रही। मानो, वह जानती हो कि उसे प्रपंचों से भरी बाहरी दुनिया में कितने संघर्ष करना पड़ेंगे। अपनी जिंदगी में कैसे-कैसे तूफान झेलने होंगे। लेकिन फिर भी आखिरकार बाहर तो आना ही था। सो, वह भी आ गई। या कहें कि ले आई गई, घनघोर शोर-शराबे से ग्रस्त और त्रस्त इस दुनिया में।

जन्म के समय वह इतनी कमजोर थी कि उसके जिंदा बचने की किसी को भी उम्मीद नहीं थी। सो, उसे घंटों की मेहनत के बाद जैसे खुद-ब-खुद मर जाने के लिए छोड़ दिया गया था। उसके शरीर का रंग हल्के भूरे से काला होता जा रहा था। महज माँस के लोथड़े में बदलता जा रहा था। उसे जन्म दिलाने वाली दाई अधीर हो रही थी। उसने उस बच्ची की माँ को रोक दिया था कि उसे अपना दूध न पिलाए। उसके मुताबिक उसे दूध पिलाना बेकार था। पड़ोसियों ने माँ को मशवरा दिया कि वह अपने स्वस्थ, तंदुरुस्त लड़के को दूध पिलाए। गाँव के वैद़्य ने उसके मुड़े-तुड़े से हाथ-पैर और एक तरफ लुढ़का हुआ सिर देखने के बाद ऐलान कर दिया कि ये “बच्ची विकलांग है। विकृत है।” लेकिन इन लोगों में किसी को भी उस बच्ची के हौसले का अंदाजा नहीं था।

माँ भी कम जिद्दी नहीं थी। वह अड़ी हुई थी कि उसकी बच्ची यूँ बिना लड़े हार नहीं मान सकती। इस तरह नहीं मर सकती। सो, उसने जोर से उसके शरीर को झिंझोड़ डाला। लेकिन नाकाम रही। तब आखिरी उपाय के रूप में उसने उसका मुँह खोला और उसमें अपनी उँगली डालकर उलट दी। इसके बाद उठाकर जोर से उसे अपनी छाती से चिपका लिया, और हमें भी।

इसके बाद ही उस नन्हे जिस्म में साँसें लौटीं। वह भी ऐसे मानो कोई धौंकनी चल रही है। काया विद्रूप थी उसकी और सिर का आकार भी अजीब सा। सिर से लेकर चेहरे तक का दो-तिहाई हिस्सा विचित्र सी झिल्ली से ढँका हुआ था। माँ की कोख के भीतर जिस झिल्ली में बच्चा लिपटा रहता है न, यह वही थी। उस बच्ची के साथ बाहर आ गई थी। इस रूप में उसे यूँ छटपटाते, हाथ-पाँव मारते हुए देखकर हर कोई हैरान था। सदमे में था। बल्कि सदमे में ही ज्यादा था। क्योंकि उन लोगों में ऐसी मान्यता थी कि इस झिल्ली के साथ पैदा हुआ बच्चा आगे कभी जंगल में भटक नहीं सकता। पानी में डूब नहीं सकता। आग उसे जला नहीं सकती। और उसे जहर देकर मारा भी नहीं जा सकता। इसीलिए दाई उस बच्ची को देखकर भौंचक थी। उसने इससे पहले कभी किसी बच्चे को ऐसी झिल्ली के साथ जन्म लेते नहीं देखा था। वह उस झिल्ली को चुपके से चुरा लेने की फिराक में थी। कामयाब भी हो जाती, अगर उसकी माँ देखकर उसे पकड़ न लेती तो।

हालाँकि ये लोग यह नहीं जानते थे कि कि वह भी हममें से ही थी। वह वचन थी और एक अभिशाप भी। रक्त और अस्थियों ने हर चीज यूँ एकजुट कर रखी थी, जैसे कोई संकल्प। एक वचन, जो तब लिया गया था, जब वह किसी स्वच्छंद लहर की तरह आजाद थी। फिर जब उसे मानव शरीर में कैद किया गया, तो वही संकल्प एक विचार, एक विषय-वस्तु बन गया। और जैसा कि ऐसे हर मामलों में होता है, यही संकल्प उसकी जिंदगी का मकसद होने वाला था। मगर जब तक वह अपने इस मकसद को पा नहीं लेती, हमें छिपे रहना था।

जन्म लेने के बाद जैसे ही उसकी चेतना लौटी, गाँव की ‘ओझन’ (झाड़-फूँक करने वाली महिला) को बुला लिया गया। वहाँ पहुँचते ही ‘ओझन’ ने तुरंत हमें पहचान लिया। उस बच्ची की देह के भीतर धधकते ज्वालामुखी की आँच को उसने बाहर तक महसूस किया था। ज्वालामुखी से निकली किसी दहकती चट्‌टान की तरह हम वहीं थे। बरसों से उसके पेट की गहराई में, झिल्ली और माँसपेशियों की परतों के बीच नीचे दबे हुए थे। वहीं खा-पी रहे थे। अपशिष्ट छोड़ रहे थे।

—— 
(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
—- 
पुस्तक की पिछली कड़ियाँ 

4. ‘मायावी अंबा और शैतान’ : मौत को जिंदगी से कहीं ज्यादा जगह चाहिए होती है!
3  मायावी अंबा और शैतान : “अरे ये लाशें हैं, लाशें… इन्हें कुछ महसूस नहीं होगा”
2. ‘मायावी अंबा और शैतान’ : वे लोग नहीं जानते थे कि प्रतिशोध उनका पीछा कर रहा है!
1. ‘मायावी अंबा और शैतान’ : जन्म लेना ही उसका पहला पागलपन था

सोशल मीडिया पर शेयर करें
Neelesh Dwivedi

Share
Published by
Neelesh Dwivedi

Recent Posts

तिरुपति बालाजी के लड्‌डू ‘प्रसाद में माँसाहार’, बात सच हो या नहीं चिन्ताजनक बहुत है!

यह जानकारी गुरुवार, 19 सितम्बर को आरोप की शक़्ल में सामने आई कि तिरुपति बालाजी… Read More

4 hours ago

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह रो रहा था क्योंकि उसे पता था कि वह पाप कर रहा है!

बाहर बारिश हो रही थी। पानी के साथ ओले भी गिर रहे थे। सूरज अस्त… Read More

1 day ago

नमो-भारत : स्पेन से आई ट्रेन हिन्दुस्तान में ‘गुम हो गई, या उसने यहाँ सूरत बदल’ ली?

एक ट्रेन के हिन्दुस्तान में ‘ग़ुम हो जाने की कहानी’ सुनाते हैं। वह साल 2016… Read More

2 days ago

मतदान से पहले सावधान, ‘मुफ़्तख़ोर सियासत’ हिमाचल, पंजाब को संकट में डाल चुकी है!

देश के दो राज्यों- जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में इस वक़्त विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया चल… Read More

3 days ago

तो जी के क्या करेंगे… इसीलिए हम आत्महत्या रोकने वाली ‘टूलकिट’ बना रहे हैं!

तनाव के उन क्षणों में वे लोग भी आत्महत्या कर लेते हैं, जिनके पास शान,… Read More

5 days ago

हिन्दी दिवस :  छोटी सी बच्ची, छोटा सा वीडियो, छोटी सी कविता, बड़ा सा सन्देश…, सुनिए!

छोटी सी बच्ची, छोटा सा वीडियो, छोटी सी कविता, लेकिन बड़ा सा सन्देश... हम सब… Read More

6 days ago