स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 13/11/2021

दो बार फोन लगाया पर नहीं उठाया, आख़िर रख दिया। सोचा कि अगला ड्यूटी पर होगा और जब समय मिलेगा तो ख़ुद कर लेगा। आख़िर रात में स्क्रीन पर नाम चमका तो लगा कि चलो, ज़वाब तो आया। बात शुरू की तो कुछ समझ नहीं आ रहा था। जैसे कोई गम्भीर हकलाने वाला हो और आवाज़ लथड़ रही हो। बहुत हिम्मत करके वो लगभग चार मिनिट में इतना ही बोल और समझा पाया कि टेक्स्ट मैसेज से बात करो। 

आवाज़ जैसे एक लम्बी सुरंग से आ रही थी, हाँफती और लथपथ। कुछ समझा नहीं, तुरन्त वॉट्सएप खोला और पूछा तो पता चला डेढ़ माह से गम्भीर बीमार है। दिमाग़ ने नियंत्रण खो दिया और बोला नहीं जाता। चलना-फिरना मुश्किल है। कई न्यूरो सर्जन का इलाज चल रहा है। ठीक होने की पूरी कोशिश चल रही है पर समस्याएँ हैं। “अब सब याद आ रहा है, तो आज याद किया आपको भी।” काँप गया उसका यह सन्देश पढ़कर। ज़ल्दी ही बात बन्द कर दी मैंने अपनी ओर से क्योंकि अगला थक गया होगा टाईप करते-करते। 

स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं। भोपाल गया था मैं 2005 में और पत्रकारिता विश्वविद्यालय में आना-जाना लगा रहता था। बहुत से बच्चों से बातचीत, अपने काम की शेयरिंग, मिलना-जुलना होता था। वह उनमें से एक था, जो बहुत लाड़ला बन गया था। एकदम अनुजवत् या औलाद की तरह। ख़ूब बातें, ख़ूब बहस और लिखना-पढ़ना। खूब सारे बच्चे, दोस्त, प्राध्यापक मेरे घर आते और कहते कि खाना बनाओ, खिलाओ। मैं उन सबको झिड़कता कि भागो, हलवाई समझ रखा है क्या? पर वे मानते ही नहीं। रात दो बजे आते और कहते, “अच्छा पोहा ही बनाकर खिला दो भूख लगी है।” सुबह से चाय-कॉफी का दौर शुरू हो जाता। 

इन बच्चों की डिग्री के बाद नौकरियाँ लगीं। यहाँ-वहाँ घूमते रहते, एक से दूसरे अख़बार। अपने अनुभव बाँटते रहते। इनके शादी-ब्याह हुए। मैं गया भी। उनकी ख़ुशी में शामिल हुआ। फिर उनके भी बच्चे हुए और इस तरह एक वृहद् दुनिया में इन सबसे सम्बन्ध प्रगाढ़ होते गए। गाहे-बगाहे बात होती थी। मीडिया की लाइन ही तनाव की है। देर रात तक काम। आधी रात को लौटना। पर दुआ सलाम हो जाती है, हफ़्ते में एक दो बार फोन पर। 

इसकी हमेशा शिकायत होती कि भोपाल आए और घर नही आए। मैं एकदम से ज़वाब देता, “अगली बार तेरे घर ही रुकूँगा। बहू के हाथ का बना खाना खाऊँगा। बिटिया के साथ खेलेंगे दिन भर। कहीं घूमने चलेंगे सब साथ।” 

कोरोना ने बहुत संत्रास दिए। इसे अख़बार ने अस्पताल जाकर कव्हरेज करने को कहा था। मैं रोज डाँटता कि मत जाओ, ख़्याल रखो। दो बार अपनी कोरोना जाँच करवाने भी गया, पर नम्बर नहीं लगा। काम और दबाव ने तनाव और अवसाद से जीवन भर दिया। 

कल जब यह सब बात हुई तो रात सो नहीं पाया। पूरा दृश्य सामने से गुजरता रहा 2005 से कल रात तक का। ये सब तो अभी ख़ुद ही बच्चे हैं। इनकी ज़िम्मेदारियाँ हैं। पर इस कोरोना ने जो अवसाद और ये जीवन भर का प्रतिसाद दिया है, वह वाक़ई सोचने वाला है कि क्या मीडिया में काम करने वाले, करवाने वाले एकदम शून्य हो गए हैं? या ज़िन्दा लाशों में बदल गए हैं? सारी तनख़्वाह काटकर 10,000 पकड़ाना और ऊपर से तनाव की रस्सी पर क़रतब करवाना, कहाँ का सामाजिक न्याय है? 

इसीलिए एक बात अपने सभी मित्रों से कहूँगा ऐसी नौकरी छोड़ दो, जो आपके शरीर, दिल और दिमाग़ को बर्बाद करने पर आमादा हो। शरीर ही नहीं रहेगा, तो जीवन कैसे चलेगा? आप अपने परिवार और दोस्तों को समय नहीं दे पा रहे, जो आपकी ऊर्जा और ताक़त हैं, तो क्या मतलब है ऐसी नौकरी का। 

भाड़ में जाए मैनेजमेंट, टारगेट और कव्हरेज। अपना जीवन और अपना परिवार सर्वोच्च हो। मित्रों से बातें साझा करो। यदि बात करनी है तो मुझसे करो। कभी भी कॉल करो, कम से कम हम खुलकर बात तो कर ही सकते हैं।

“आओ, सब अँधेरे में सिमट आओ
हम यहाँ से रोशनी की राह खोजेंगे” 

मेरे लाड़ले बच्चे, दुआ है कि तुम्हें मेरी उम्र लग जाए। ज़ल्दी ठीक हो जाओ। भोपाल की बड़ी झील पर बत्तख देखते हुए स्टीमर पर घूमेंगे। जहाँनुमा में रात का भोजन करेंगे। फिर घर आकर सब मिलकर खूब गप्प करेंगे। बिटिया के साथ खूब खेंलेंगे। भोजपुर और भीमबैठिका घूमने जाएँगे, हम सब। ज़ल्दी से ठीक हो जाओ। हिम्मत मत हारना और नौकरी गई भाड़ में…

सब ठीक होगा, ज़ल्द ही हम फिर मुस्कुराएँगे।

(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 35वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं :  
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 :  पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा 
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो 
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं 
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें! 
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा 
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा! 
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? 
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ .. 
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है… 
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा 
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं 
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है 
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है! 
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता… 
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा… 
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे 
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो  
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा! 
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा 
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता! 
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो… 
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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