बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से
पुरन्दर गढ़ के किलेदार नीलकण्ठराव सरनाईक का देहान्त हुआ (सन् 1654 का तीसरा हफ्ता)। पाँच महीने बाद शिवाजी ने पुरन्दर पर कब्जा कर लिया। नेताजी पालकर को किलेदार के रूप में नियुक्त किया। कोंढाना को भी फिर से जीत लिया। चाकन का किला भी स्वराज्य में शामिल किया गया। स्वराज्य की सीमा भीमा (चन्द्रभागा) नदी की तरंग को छूने लगी।
उधर, जावली के चन्द्रराव मोरे सात साल तक शिवाजी राजे के साथ मित्रता से, नरमी से पेश आए। मगर बाद में उनकी नीयत बदल गए। स्वराज्य में घुसकर लोगों को मारने की गुस्ताखी करने लगे। समझाने-बुझाने से माने नहीं। सो राजे ने जावली को ही घेर लिया। जोरदार मुकाबला हुआ। आखिर चन्द्रराव मोरे रायगढ़ की तलहटी में राजे की शरण में आए। लेकिन चूँकि अभय देने पर भी चन्द्रराव ने द्रोह किया था। गुस्साए राजे ने मोरे को मार डाला (सन् 1656 सितम्बर का आरम्भ)।
इसी समय जावली के पास, भोरप्या पहाड़ पर राजे की आज्ञा से मोरोपन्त जी पत्थर का मजबूत किला बना रहे थे। यही है वह प्रख्यात प्रतापगढ़। ठीक इसी समय समर्थ रामदास स्वामी वरंधा घाटी की शिव-गुफा में बैठे हुए थे। श्रीरामजी की प्रेरणा से वह एक अनोखी शक्ति देने वाले काव्य ग्रन्थ ‘दासबोध’ की रचना कर रहे थे। कर्मयोग का तत्त्व ज्ञान और जीने की कला सिखाने वाला जीवनवेद। समर्थ रामदास महाराष्ट्र को शक्ति, युक्ति की उपासना का मंत्र दे रहे थे।
सह्याद्रि ने मराठों को छापामार युद्ध की सीख दी थी। समर्थ जी ने जीवन को गौरव के साथ जीने की तरकीबें सिखाईं। चेतावनी दी, “कमजोर को कोई नहीं पूछता। रोगी, बंजर जमीन की तरह है। सो उठो! शक्ति की उपासना करो। जीवन को हर तरह से समृद्ध करो। आलस का त्याग करो। प्रयत्न ही परमेश्वर है। धीरज रखो। दुष्ट के लिए बेझिझक दुष्ट बनो। फीके, निःसत्व जीवन को सरस बनाओ। पराक्रम की भव्यता का पूजन करो। विवेक का दामन कभी मत छोड़ो। एकता को बनाए रखो। गृहस्थी रो-पीटकर मत करो। आपसी झगड़ों से दूर रहो। एक होकर शत्रु का खात्मा करो। वक्त को अपने माफिक बना लो। अक्ल के सहारे ब्रह्माण्ड को नाप तो।”
वरंधा घाटी की शिव-गुफा में समर्थ रामदास सामर्थ्यवान्, सरस जीवन के मंत्र को शब्दबद्ध कर रहे थे। और सह्याद्रि की चोटी पर बने किलों को स्वतंत्र करने वाले शिवाजी के जीवन में उस मंत्र की कार्यशक्ति प्रकट हो रही थी।
कर्हे पठार पर खड़ी सुपे को गढ़ी, आरती के थाल में रखी सुपारी को तरह जँचती थी। यह सम्भाजीराव मोहिते का थाना था। यहाँ तीन सौ घोड़ों की घुड़साल थी। सम्भाजीराव, तुकाऊ साहब यानी जिजाऊ साहब की सौत के भाई थे। रिश्ता नाजुक था। मामाजी को शिवाजी राजे फूटी आँख नहीं सुहाते थे। इसीलिए सुपे थाना एवं सुपे परगना रिश्ते में अपना होकर भी स्वराज्य का अंग नहीं था। मामा साहब का कारोबार सुल्तानी ढंग का ही था। रिआया पर बड़ी सहजता से अन्याय करते। रिश्वत भी लेते ही थे। मामाजी के कारनामों की शिवाजी राजे को पूरी खबर थी।
एक बार राजे ने ठान ही लिया कि सुपे थाने पर कब्जा पाना है। सो, चन्द घुड़सवारों की टुकड़ी लेकर राजे सीधे सुपे के दरवाजे पर जा धमके। दरवाजे पर कह दिया कि मामा साहब से मिलने आए हैं। दीवाली की बक्षीस चाहते है। और मामा की अनुमति की राह देखे बिना ही वह गढ़ी में घुस गए। चौकी-चौकी पर फटाफट मावली सैनिकों को तैनात करते हुए अन्दर गए। बेसावध मामा को पकड़ लिया। मामा के काटो तो खून नहीं। बाजी राजे के हाथ में थी। वे मामा से बोले, “सुपे परगना और गढ़ी हमारे हवाले कर दो।”
मामा ने साफ इंकार किया। इंकार सुनते ही राजे ने मावलों को हुक्म फरमाया, मामा को कैद करने का। पूरे सामान असबाब, धन-दौलत के साथ राजे ने गढ़ी पर कब्जा कर लिया (तारीख 24 सितम्बर, 1656)। इस तरह सुपे परगना स्वराज्य में शामिल हुआ। नाजुक रिश्तों की भी राजे ने परवाह न की। उन्होंने येसा गणेश अत्रे को सुपे परगने का थानेदार तैनात किया। मोहिते मामाजी को शहाजी राजे के पास कर्नाटक भेज दिया।
इसी समय खबर मिली कि बादशाह शहाजहाँ सख्त बीमार हैं। मौका देख राजे ने जुन्नर के मुगली थाने पर अचानक छापा मार दिया। भारी लूट मिली (तारीख 30 अप्रैल, 1657)। नगर और श्री गोंदे थाने भी लूटे। मुगलों के खिलाफ राजे ने पहली बार मोर्चा संभाला था। गहमा-गहमी के इसी दौर में पुरन्दर गढ़ में एक आनन्दमयी घटना घटी। राजे को पुत्र हुआ (दिनांक 14 मई, 1657)। नाम रखा गया सम्भाजी राजे।
इसी बीच, बीजापुर का बादशाह मुहम्मद आदिलशाह मर गया। उसकी जगह ली, उसके बेटे अली आदिलशाह ने। दिल्ली की मुगलशाही भी अब सही अर्थ में औरंगजेब के ही हाथों में थी। शिवाजी ने परिवर्तन के संक्रमण-काल का पूरा लाभ उठाया। किया यह कि सेना को भेज, आदिलशाही के कोंकण थाने जीते और उन्हें स्वराज्य में शामिल करने की मंजूरी ले ली, मुगल शाहजादे औरंगजेब से। औरंगजेब का विरोध करने की हिम्मत आदिलशाह में थी नहीं। सो, उस आदिलशाही मुल्क पर स्वराज्य की मुहर लग गई।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।)
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ
14- शिवाजी महाराज : बोलो “क्या चाहिए तुम्हें? तुम्हारा सुहाग या स्वराज्य?
13- शिवाजी ‘महाराज’ : “दगाबाज लोग दगा करने से पहले बहुत ज्यादा मुहब्बत जताते हैं”
12- शिवाजी ‘महाराज’ : सह्याद्रि के कन्धों पर बसे किले ललकार रहे थे, “उठो बगावत करो” और…
11- शिवाजी ‘महाराज’ : दुष्टों को सजा देने के लिए शिवाजी राजे अपनी सामर्थ्य बढ़ा रहे थे
10- शिवाजी ‘महाराज’ : आदिलशाही फौज ने पुणे को रौंद डाला था, पर अब भाग्य ने करवट ली थी
9- शिवाजी ‘महाराज’ : “करे खाने को मोहताज… कहे तुका, भगवन्! अब तो नींद से जागो”
8- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवबा ने सूरज, सूरज ने शिवबा को देखा…पता नहीं कौन चकाचौंध हुआ
7- शिवाजी ‘महाराज’ : रात के अंधियारे में शिवाजी का जन्म…. क्रान्ति हमेशा अँधेरे से अंकुरित होती है
6- शिवाजी ‘महाराज’ : मन की सनक और सुल्तान ने जिजाऊ साहब का मायका उजाड़ डाला
5- शिवाजी ‘महाराज’ : …जब एक हाथी के कारण रिश्तों में कभी न पटने वाली दरार आ गई
4- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठाओं को ख्याल भी नहीं था कि उनकी बगावत से सल्तनतें ढह जाएँगी
3- शिवाजी ‘महाराज’ : महज पखवाड़े भर की लड़ाई और मराठों का सूरमा राजा, पठाणों का मातहत हुआ
2- शिवाजी ‘महाराज’ : आक्रान्ताओं से पहले….. दुग्धधवल चाँदनी में नहाती थी महाराष्ट्र की राज्यश्री!
1- शिवाजी ‘महाराज’ : किहाँ किहाँ का प्रथम मधुर स्वर….
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