ज़ीनत ज़ैदी, शाहदरा, दिल्ली
‘झल्लाहट और चिड़चिड़ाहट’ से आज हर दूसरा इंसान त्रस्त मिलेगा। ये हमारे शरीर के भीतर बैठे रावण की तरह हैं। क्योंकि इनके भी 10-10 सिर होते हैं। यानी ये एक अकेले नहीं होते। अपने साथ कई अन्य नकात्मक विचार, प्रभाव भी साथ लाते ही हैं। और ये सब मिलकर हमारी तमाम अच्छाईयों को, सकारात्मकता को ख़त्म करते हैं। उनका दमन करते हैं। उन पर हावी हो जाते हैं। सो, इस विजयादशमी के मौके पर कितना अच्छा हो, अगर हम इस ‘रावण’ के मूल के बारे में विचार कर इसे ख़त्म करने का संकल्प लें। आइए, एक कोशिश कर के देखते हैं।
तो सबसे पहले उन कारणों पर ग़ौर करना लाज़िमी होगा, जिनसे ये ‘रावण’ हमारे भीतर पनपते हैं। इसमें जैसा कि हम जानते हैं, हर इंसान एक सा नहीं है। हमारी ज़िन्दगी अलग, सोचने का तरीका अलग, परिस्थितियाँ अलग और आस-पास का माहौल भी अलग l इसके बावज़दू वक़्त हम सबके पास लगभग एक सा है। यानि ऊपर वाले ने हम सबको एक दिन में 24 घंटे ही दिए हैं। और उम्र भी आम तौर पर एक साधारण इंसान की 70 से 80 साल ही होती है। इसमें दिलचस्प ये कि हम सब अपनी उम्र के लगभग 30-32 साल सिर्फ सोने में गुज़ार देते हैं, ऐसा वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है। इसके बाद जो वक़्त बच जाता है, उसमें भी बहुत सारा गैरज़रुरी कामों में गँवा देते हैं।
इसका सीधा मतलब ये कि हमारे पास ‘समय कम और काम ज़्यादा’ की स्थिति हमेशा रहती है। यह हमेशा हमारे ऊपर दबाव बनाए रखती है। विद्यार्थियों पर स्कूल का दबाव। दफ़्तर में कर्मचारियों पर बॉस का दबाव। कभी घर के काम का दबाव। कभी समाज का दबाव, वग़ैरा, वग़ैरा। ऐसा लगातार चलता है। इसका हमारे दिमाग़ पर सीधे असर पड़ता है, जिसका अंजाम होता है चिड़चिड़ापन, झल्लाहट। ये चिड़चिड़ापन और झल्लाहट जब लगातार और हद से बढ़ती जाती है तो हाइपर टेंशन, हाई ब्लड प्रेशर, दिल की बीमारी और ऐसे न जाने कितने तरह के असर साथ में ले आती है। हम पर थोप देती है। इनके प्रभाव से हमारे भीतर की सकारात्मकता दम तोड़ने लगती है।
तो अब सवाल ये कि इसका ज़िम्मेदार कौन? क्या कोई बाहरी? नहीं, हम खुद। क्योंकि हम ये समझ नहीं पाते कि परेशानियाँ तो ज़िन्दगी में आना स्वाभाविक है। इनका आना जरूरी भी है। इनसे डरना, घबराना, या सहम जाना कैसा? हमें समझना चाहिए कि ये जीवन एक ही बार मिलता है। इसमें बचपन में हम अपनी मर्जी से कुछ कर नहीं पाते। बुढ़ापे में हमारा शरीर हमें ज़्यादा कुछ करने नहीं देता। बाकी बची युवावस्था, उसे भी अगर हम मुश्क़िलों को मन में बड़ी बना-बनाकर डरते हुए, घबराते हुए, सहमे हुए रहकर गँवा देंगे तो फिर बचा क्या?
इसीलिए क्या ये बेहतर नहीं होगा कि हम अपने सोचने का तरीक़ा बदलें। मानें कि हमारा जो भी काम है, चाहे वह घर का हो, ऑफिस का, पढ़ाई का या कुछ और। उसे तो हमें करना ही पड़ेगा। तो क्यों न ख़ुश होकर किया जाए l यक़ीन मानिए, अगर हम इस तरह अपने कामों को करने लग जाएँगे, तो हमारी ज़िन्दगी में बहुत बड़ा बदलाव दिखने लगेगा। क्योंकि तब सही मायनों में हमारी ‘विजयादशमी’ होगी। एक बार क़ोशिश कर के देखिए। भीतर के रावण को पराजित करने, उसे मारने से, बाहरी रावण को जलाने के मुक़ाबले अधिक ख़ुशी मिलेगी।
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(ज़ीनत #अपनीडिजिटलडायरी के सजग पाठक और नियमित लेखकों में से एक हैं। दिल्ली के आरपीवीवी, सूरजमलविहार स्कूल में 11वीं कक्षा में पढ़ती हैं। लेकिन इतनी कम उम्र में भी अपने लेखों के जरिए गम्भीर मसले उठाती हैं। उन्होंने यह आर्टिकल सीधे #अपनीडिजिटलडायरी के ‘अपनी डायरी लिखिए’ सेक्शन पर पोस्ट किया है।)
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