महाकवि शूद्रक के कालजयी नाटक पर विशेष श्रृंखला।
अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 13/9/2022
‘मैत्रेय’ का प्रश्न ‘चारुदत्त’ के सामने यथावत् है, ‘मरण और निर्धनता में तुम्हें क्या अच्छा लगेगा?’
गहरी श्वांस लेकर ‘चारुदत्त’ उत्तर देता है, “निर्धनता और मृत्यु में से मृत्यु कम कष्टकर है। क्योंकि निर्धनता नित्य और मृत्यु सिर्फ़ आने तक ही कष्ट देती है। लेकिन मुझे निर्धनता कष्ट नहीं दे रही है। धन तो आता जाता रहता है। बल्कि मुझे तो मेरे निर्धन हो जाने के कारण अतिथियों का छोड़ जाना कष्ट दे रहा है। मुझे वैभव के नष्ट हो जाने की चिन्ता नहीं। धन तो भाग्य से आता, जाता है। किन्तु, मुझे यह बात जला रही है कि दरिद्र व्यक्ति से उसके स्वजन भी कतराने लगते हैं।”
‘चारुदत्त’ यहीं नहीं रुकता। उसका शोक बहुत बड़ा है। वह कहता है, “निर्धनता से लज्जा आती है। लज्जित होने से तेज नष्ट हो जाता है। तेज नष्ट होने से अपमान होता है। अपमान होने से शोक होता है। शोक से विवेक नष्ट हो जाता है और विवेकहीन का नाश हो जाता है। इसलिए निर्धनता प्रत्येक विपत्तियों का घर है” (निर्धनता सर्वापदामास्पदम्)।
‘मैत्रेय’ फिर कहता है, “मित्र, तुम व्यर्थ तुच्छ धन के नष्ट होने पर सन्ताप कर रहे हो।”
इस पर ‘चारुदत्त’ कहता है, “हाँ मैत्रेय, तुम ठीक कहते हो। चलो, मैंने घर में देवताओं को बलि प्रदान कर दी है। तुम चौराहे पर मातृ देवियों को बलि प्रदान करो।”
इसके लिए ‘मैत्रेय’ मना कर देता है। कहता है, “जब पूजा करने से देवता प्रसन्न नहीं होते, तो ऐसी पूजा करने से क्या लाभ?”
‘चारुदत्त’ उसे समझाता है, “ऐसा नहीं कहते। यह बलि प्रदान करना तो गृहस्थ का नित्य-कर्म है। तप से, स्तुति रूपी वचनों से और बलि कर्म से पूजित देवता शान्त मन वाले मानव से सदैव प्रसन्न रहते हैं। इस विषय में बहस से कोई लाभ नहीं। तो जाओ और मातृ देवियों को बलि प्रदान करो।”
(बलि से यहाँ तात्पर्य पूजा उपहार से है। फल पुष्प आदि अर्पण करने से है।)
तभी मंच पर कुछ लोग ‘वसंतसेना’ का पीछा करते हुए चिल्लाते, भागते दिखाई देते हैं। ‘वसंतसेना’ उन से बचते हुए भाग रही है। राजा का साला ‘शकार’ भी पीछा करने वालों में शामिल है।
‘वसंतसेना’ नाटक की नायिका है। वह गणिका है। अनुपम सुन्दर है। ‘चारुदत्त’ ने जब पहली बार ‘वसंतसेना’ को देखा तो वह उसे शरद ऋतु के मेघ से ढके हुए चन्द्रमा की कला के समान प्रतीत हुई।
‘शकार’ तभी ‘वसंतसेना’ से प्रणय-निवेदन करता है। वह उसे अस्वीकार कर देती है। कहती है, “व्यक्ति के गुण अनुराग के कारण होते हैं। बलात् आप किसी का प्रेम नहीं पा सकते (गुणा: खलु अनुरागस्य कारणम्, न पुनर्बलात्कार:) इसलिए मेरा पीछा छोड़ दो।”
इस पर क्रोध से ‘शकार’ कहता है, “मूर्ख तू उस निर्धन चारुदत्त से स्नेह करती है। मैं तुझे मार दूँगा।”
इतना कहकर वह अपने सेवक को ‘वसंतसेना’ की गर्दन काटने का आदेश दे देता है। लेकिन सेवक अपनी चतुरता से ‘वसंतसेना’ को ऐसा संकेत करता है कि ‘चारुदत्त’ का घर बाईं तरफ है। साथ ही, उसे भागने का अवसर देता है।
‘वसंतसेना’ भागती हुई ’चारुदत्त’ के घर में प्रवेश कर जाती है।
जारी….
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(अनुज राज पाठक की ‘मृच्छकटिकम्’ श्रृंखला हर मंगलवार को। अनुज संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)
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