समीर पाटिल, भोपाल, मध्य प्रदेश
यकीनन पिछले कुछ दिनों से हिन्दुत्व के नवगायक मनोज काफी ‘मुंतशिर’ (बिखरा हुआ) रहे होंगे। वह ‘आदिपुरुष’ की रिलीज के बाद उठे गदर में पहले तो विरोध को खारिज करते रहे। मगर उनके विरोधियों को वह मुद्दा मिल गया था, जिसकी उन्हें मुद्दत से तलाश थी। सो, विरोध बढ़ा तो फिर वे मीडिया में सफाई देते दिखाई पड़े। अब तो फिल्म के आपत्तिजनक संवादों को भी बदल दिया गया है। लेकिन रामकथा की एवरग्रीन थीम और अत्याधुनिक तकनीकी से बनी एक मेगा फिल्म, जिसे हाथों-हाथ लेने के लिए जनमानस तैयार दिखाई देता था और जिसकी कल्पना से आधुनिक, लिबरल तबका काफी सशंकित था, कामयाबी के उच्च पायदान को छूने से पहले ही थक गई।
दरअसल, उदात्त सरलीकरण जड़ता को आकर्षक पैकेजिंग में बेचने वालों का पेशा है। और ऐसा करने वालों में मनोज शुक्ला ‘मुंतशिर’ अकेले नहीं। हम सब इसके शिकार हैं। इसमें भी प्रतिष्ठितों की सूची सुदीर्घ है। संस्कृत वैय्याकरण जिनका नामस्मरण कर शब्द तत्त्व की उपासना करते आए हैं, ऐसे देवदत्त पट्टनायक हों या रामकथा के नवसुकुमार गायक कुमार विश्वास। हर शख्स कुछ नया अलग, रुचिकर मसाला परोसने को उत्सुक है। बाजार में नकली सिक्कों की भरमार इतनी हो गई है कि असली सिक्के की पहचान ही खत्म हो गई है। गहरे में जाएँ तो शायद असली सिक्के की आवश्यकता ही नहीं बची है। इस मायने में यह आक्रान्ता औपनिवेशिक सोच की यथार्थ जीत ही है।
आम भारतीयों के लिए उनकी अपनी परम्परा की शिक्षा को ब्रितानी सल्तनत ने बन्द ही नहीं किया, बल्कि एक नई शिक्षा पद्धति लाद कर उसके माध्यम से भारतीयों के मानस में उनकी अपनी परम्परा, दर्शन, ज्ञान और संस्कृति के खिलाफ टर्मिनेटर जीन डाल दिए। उपनिवेशवाद की जड़ में जो सांस्कृतिक अधिनायकवाद है, सनातन धर्म जैसी परम्पराओं के प्रति जो विद्वेष है, उसके संवाहक आज हम खुद बने हुए हैं। हम जब अपने सांस्कृतिक आचार-विचार, आहार-विहार, नैतिक मूल्य और आध्यात्मिक दर्शन को स्थानीय ज्ञान परम्परा से न जानकर तनखैया प्रोफेसरों द्वारा विदेशी प्रस्थान, सिद्धान्त, दर्शन और भाषा में अध्ययन करते हैं, तब हम अपने प्राकृत प्रथम स्रोत को छोड़कर दोयम स्तर के आयातित नजरिए को अपनाते हैं। यही वह मूल पाप है जो हमें यथार्थ ज्ञान से गिरा देता है। हमारे पास फिर लच्छेदार शब्दावली में सुसम्बद्ध तर्कणा होती है। भौंडा सही, किन्तु हर बात का एक जवाब होता है। उससे उपजा एक अजब आत्मविश्वास होता है। जिन विषयों पर बड़े तपस्वी और विद्वान आचार्य भी कहने में संकोच करते हैं, कुपढ़ जनित अजीर्ण के रोगी वहाँ गंद मचाकर उसमें लोट-पोट करते हैं।
मजे की बात यह है कि राष्ट्र, स्वाधीनता और मानवीय बौद्धिकता के तमाम कुप्रचारों के बीच यह औपनिवेशिक सोच अब भी वैश्विक राजनीतिक और अर्थतंत्र को परिचालित कर रही है। लोकतंत्र में जनमानस को लुभाने के सफलतम साधन भोगवाद के माध्यम से यह जनमानस के दिलो-दिमाग को प्रभावित कर रही है। उनकी हर इच्छा, कामना-वासना को दिशा दे रही है। ऐसे में जनमानस जिस किस्म की पॉप-स्पिरिचुअलिटी या नैतिकता की माँग करता है, उसे लेकर कोई जिन्न हाजिर हो जाता है। जबकि समझने की बात असल में ये है कि मन की वृत्तियों की गुलामी त्यागकर उस धर्मशीलता को अपनाने की जिसकी मर्यादा ही उत्थान का सर्वोत्कृष्ट मार्ग है। ‘रामो विग्रहवान धर्म:’ अर्थात्- राम धर्म के विग्रह या स्वरूप हैं, जब श्रीराम का शत्रु पक्ष भी उन्हें इस रूप में देखता है, तब पुरुषोत्तम श्रीराम के रूप में भगवत्ता प्रकट होती है।
आदिपुरुष के संवादों पर विरोध को भले ही राजनीतिक हथकंडे के रूप में इस्तेमाल कर तिल का ताड़ बनाया गया हो। लेकिन जिस शान्ति के साथ लोगों ने फिल्म को ठंडा किया, उससे एक बात तो सिद्ध होती है कि इन परिस्थितियों में विवेक अभी टिका हुआ है। अगर आप सीमा लाँघेंगे तो प्रतिकार होगा। यह कुमार, देवदत्त सहित तमाम समाज सुधारक व लोकरंजक कथाकारों के लिए सत्य के धरातल पर पैर रखकर चलने का संकेत है। यह जनमानस को चेतावनी भी है, यदि वह आचार्यों की ज्ञान परम्परा का अनुशासन तोड़कर स्वेच्छाचार से ज्ञान की खोज करेगा तो ठगा ही जाएगा।
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(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी के शुरुआती और सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर पाटिल। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। मध्य प्रदेश के ही रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ भी लिखा लिया करते हैं।)
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