ऋचा लखेड़ा की पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’
ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली से
वह छोटी बच्ची पूरी रात अपनी माँ को तलाशती रही। जोतसोमा के जंगल की बाड़ के पास पहुँचते ही उसकी साँसें थम गईं। एकाएक वह रुक गई। ये वही जगल थे, जहाँ वे लोग कभी अपनी मर्जी के मालिक बनकर घूमा करते थे। लेकिन उस रात चाँद की छटा कुछ अलग जान पड़ती थी। इस बदलाव को ठीक से वह महसूस भी नहीं कर पाई थी कि उसकी निगाह सामने जाकर ठिठक गई। बाँजफल के बड़े से पेड़ पर उसकी माँ का शरीर झूल रहा था। मृत्यु के गहने की तरह। उसने और कई अन्य महिलाओं ने इस गहने को धारण कर रखा था। कुछ शरीर बहुत भारी थे। माँस और खून से लथपथ, पथरीले, जमीन की तरफ झूलते हुए। और उसकी माँ? उसका बेजान होता शरीर चाँद की अलहदा धवल चाँदनी में पीला पड़ता जा रहा था। हालाँकि वह पंख की तरह हल्का था। शायद इसीलिए काफी देर बाद भी, अब तक उसकी मौत नहीं हुई थी। उसकी आँखें अधखुली थीं और वह बड़ी मुश्किल से साँसें ले रही थी। गले में लिपटी रस्सी के सहारे वह हवा में झूल रही थी। उसके पास एक ही गहना था। गले की माला, जो नीचे गिरने वाली थी। तभी, जैसे ही माला जमीन पर गिरी, बच्ची दौड़ पड़ी। और इससे पहले कि भीड़ उसे अगला निशाना बनाती, माँ की माला उठाकर उसने सीने से लगा ली।
यह सब बहुत तेजी से हुआ। चारों ओर छाया कोहरा इस वक्त गहरी सफेद धुंध में तब्दील होता जा रहा था। इतना गहरा कि चंद कदमों की दूरी पर भी कुछ नजर नहीं आता था। गाँव आँखों से ओझल हो चुका था। और इस धुंध में वह बच्ची भी कहीं लुप्त हो गई।
जब धुंध छटी, तो वह बच्ची वहाँ नहीं थी। ऐसा लगा, जैसे उसे आसमान खा गया या जमीन निगल गई। पीछे थी तो बस दुर्गंध भरी गर्मी और पत्थरों पर उसके पंजों के निशान। मानो वे पत्थर मोम से बने हुए हों।
मौसम बदलने पर कुछ लोगों को आज भी जोतसोमा के घने जंगलों में जीव जंतुओं की दिल दहला देने वाली भयानक आवाज़ों के साथ उस बच्ची का विलाप सुनाई देता है। इसीलिए सूरज ढलने के बाद मजबूत दिल वाले भी जोतसोमा के जंगलों में जाने की हिम्मत नहीं कर पाते।
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‘हम’
जन्म लेना ही उसका पहला पागलपन था।
भगवान ने हमारे साथ उसे भी एक नन्हे से मानव शरीर में कैद कर दिया था।
जहाँ से बाकी तमाम चीजें आया करती हैं, वहीं से हम भी आए थे। हम सभी को एकमेव कर उसकी माँ की कोख के समंदर में धकेल दिया गया था। आँखें मूँदे हुए वहीं उसका नन्हा सा शरीर आकार ले रहा था। कई बार वहाँ हम अपनी मर्जी, अपनी पसंद से गए। जैसे कि अभी।
लेकिन एक बार जैसे ही हम उसकी धमनियों, शिराओं में बहती रक्त-धाराओं का हिस्सा बने, हमारी स्वच्छंदता हमसे छिन गई। अब हम उसके छोटे से मस्तिष्क में आकार लेती धुंधली सी चेतना का हिस्सा बन चुके थे। इंसानी शरीर के रूप में उसके जन्म की असामान्य घटना में अब हम भी फँस चुके थे। उलझ चुके थे। उसका इंसानी शरीर अब हमारा भी था।
हम जिस जगह से आए थे, वहाँ से आने और वहीं वापस लौट जाने की आदत हमें पहले ही थी। सो, उसी आदत के बलबूते अब हम उसके दिल के दो हिस्सों के बीच इधर से उधर लुढ़क रहे थे। धड़कनों के सुरों के साथ, उनकी लय के साथ।
शुरुआती महीनों में जब वह माँ की कोख में आकार ले रही थी, तो हम अक्सर उससे बात करने की कोशिश करते थे। लेकिन वह कोख के भीतर ही अपने नन्हे-नन्हे पैर चलाकर भूचाल ला देती थी। हालाँकि कभी-कभार अपनी खास जुबान में हमसे बात भी कर लिया करती थी।
पर अब जिस घड़ी वह कोख से बाहर इंसानों की दुनिया में आएगी, सब कुछ बदल जाएगा!
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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