‘संस्कृत की संस्कृति’ : शब्द नित्य है, ऐसा सिद्धान्त मान्य कैसे हुआ?

अनुज राज पाठक, दिल्ली से

हमने देखा कि कैसे धातु के रूप में परिवर्तन से अर्थ बदल जाता है। संस्कृत भाषा में मात्र क्रिया शब्दों के निर्माण में ही धातुओं का प्रयोग नहीं होता है। तो क्या सभी शब्द धातुओं से बनते हैं? यह प्रश्न उठता है। चलिए देखते हैं संस्कृत व्याकरण में इस विषय पर आचार्यों ने क्या कहा है।

संस्कृत भाषा में पाणिनीय व्याकरण के अलावा अन्य व्याकरणों के आचार्यों ने भी शब्दों के निर्माण पर अपने मत दिए हैं। यह विषय बहुत लोगों के मन में उठा कि मानव भाषा के प्रारम्भिक मुकुशंद कौन से और कैसे रहे होगें। अब प्रारम्भ में इतनी व्यवस्थाएँ रहीं या नहीं कहा नहीं जा सकता, क्योंकि जैसा हमने पहले देखा था कि वृहस्पति में और इन्द्र में अपने अपने व्याकरणों में प्रतिपद पाठ किया था अर्थात् प्रत्येक शब्द को एक-एक कर पढ़ा था। यह व्यवहार की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं। फिर क्या रहा होगा?

इस समस्या के समाधान हेतु आचार्य यास्क तथा अन्य शब्दों को नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात के रूप में वर्गीकृत करते हैं। कुछ कर्मप्रवचनीय तथा गतिसंज्ञक को भी इसके अन्तर्गत रखते हैं। वहीं, आचार्य पाणिनि तीन प्रकार से वर्गीकरण करते हैं – नाम, आख्यात, और अव्यय। उपसर्गों और कर्मप्रवचानियों का निपात में अन्तर्भाव करते हैं और निपात का उपसर्गों में।

इनके s इन्हें भाषा का अङ्ग नहीं मानते। यदृच्छा शब्दों को भार रूप माना जाता रहा है। महाकवि भास यदृच्छा शब्दों के समान उपहास उड़ाते हुए नाममात्र के मनुष्य होने की तुलना करते हैं (यदृच्छाशब्दवत् पुंसः संज्ञायै जन्म केवलम् (शिशुपात वध 2/47))।

यादृच्छित शब्दों के मूल शब्द का ज्ञान नहीं होता न वे किसी भी प्रकार के नियम में बँधे दिखाई देते हैं। इसलिए ऐसे शब्दों को स्वीकार न करना किसी भी सिद्धान्तकार के लिए स्वाभाविक है। शब्दों के निर्माण में धातु की भूमिका पर धातु शब्द के अर्थ को समझने का प्रयास करते हैं। धातु के अर्थ को बताते हुए आचार्य कहते हैं, “दधाति शब्द स्वस्वरुपम् यः स धातुः” अर्थात् विविध शब्दरूपों को धारण करने वाला जो मूल शब्द है वह धातु कहलाता है।

इसी धातु से नाम आख्यात अव्यय सभी शब्द बनते हैं। सभी के मूल में धातु है। इनमें जो प्रकृति प्रत्यय का विभाजन होता है, वह काल्पनिक या व्यवस्था बनाने के लिए है। “धातु पहले से विद्यमान है” या कहें मूल शब्द पहले से हैं, इस सिद्धान्त को मानने के कारण “शब्द नित्य है” यह भी मान्य हुआ।

इसी नित्यता के कारण व्याकरण के आचार्य शब्द को “ब्रह्म” मानते हैं और उसमें अपनी इच्छा से अर्थात् यादृच्छिक शब्द के प्रयोग को अनुचित मानते हैं।  वास्तव में संस्कृत भाषा के व्याकरण में एक शब्द की तो छोड़िए एक बिन्दु मात्र भी अकारण या व्यर्थ प्रयोग नहीं होता। सब कुछ व्यवस्थित और नियम से बँधा हुआ है। व्याकरण में इसी शुद्ध प्रयोग को “ब्रह्म की उपासना” मानी जाती है।

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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)

(अनुज से संस्कृत सीखने के लिए भी उनके नंबर +91 92504 63713 पर संपर्क किया जा सकता है)
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इस श्रृंखला की पिछली 10 कड़ियाँ 

14 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : पंडित जी पूजा कराते वक़्त ‘यजामि’ या ‘यजते’ कहें, तो क्या मतलब?
13 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : संस्कृत व्याकरण की धुरी किसे माना जाता है? 
12- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : ‘पाणिनि व्याकरण’ के बारे में विदेशी विशेषज्ञों ने क्या कहा, पढ़िएगा!
11- संस्कृत की संस्कृति : पतंजलि ने क्यों कहा कि पाणिनि का शास्त्र महान् और सुविचारित है
10-  संस्कृत की संस्कृति : “संस्कृत व्याकरण मानव मस्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना!”
9- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : आज की संस्कृत पाणिनि तक कैसे पहुँची?
8- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : भाषा और व्याकरण का स्रोत क्या है?
7- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : मिलते-जुलते शब्दों का अर्थ महज उच्चारण भेद से कैसे बदलता है!
6- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : ‘अच्छा पाठक’ और ‘अधम पाठक’ किसे कहा गया है और क्यों?
5- संस्कृत की संस्कृति : वर्ण यानी अक्षर आखिर पैदा कैसे होते हैं, कभी सोचा है? ज़वाब पढ़िए!

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