हमें समझना होगा कि मात्र विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा ही सबकुछ नहीं है!

अजुज राज पाठक, दिल्ली

“इतने गन्दे कपड़े पहनकर रोज आता है, क्या तुझे वर्दी के पैसे नहीं मिले? भाई नई खरीद ले।” अपनी कक्षा के बच्चे से ऐसा कह ही रहा था कि वह मेरी पूरी बात बिना सुने ही बोल पड़ा, “रहने को घर नहीं और आपको कपड़ों की पड़ी रहती है।” ऐसा कहकर वह हँसते हुए चला गया।  मैं पीछे अवाक् खड़ा रह गया। कितना सहज था उसका यह कह देना। शायद इसीलिए मेरे लिए उस समय कोई भी प्रतिक्रिया देना सम्भव न हो सका।

उस दिन के बाद यह बात आई-गई हो गई। हाँ, इतना जरूर रहा कि उससे फिर कपड़ों की चर्चा नहीं की। वह मेरी कक्षा में अच्छे पढ़ने वाले बच्चों में से ही एक था। कुछ दिनों बाद मेरे प्रधानाचार्य ने भी मेरे ही सामने मुझे और उसी छात्र को उसके कपड़ों के लिए टोका। लेकिन न मैं और न ही वह छात्र कुछ बोल पाए। प्रिंसिपल की बात सुनने के बाद हम चुपचाप अपने-अपने काम में लग गए। दरअसल हमारे पास कहने को कुछ था नहीं।

अब अधिकारी को भर्त्सना करने का अधिकार है तो उसने कर दी। लेकिन छात्र की स्थिति ने मजबूरन मुझे और उसे दोनों को प्रतिक्रिया देने से रोक दिया। यहीं से हम सबके लिए एक व्यवहारिक सबक भी निकलता है। वह ये कि शिक्षण, शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था को बेहतर करने का कारगर उपाय ये हो सकता है कि केवल अनुशासनात्मक आदेशों से इन सब को यांत्रिक न बना दिया जाए। क्योंकि यह अपेक्षित परिणामों में बाधक होता है। 

आदेश सभ्य समाज के हिस्सा हैं। लेकिन इसी सभ्य समाज के मनुष्यों का जीवन झूठों से परिपूर्ण होता है। शायद इसी कारण सत्य बोलने से बेहतर बस आदेश देने को मान लिया जाता है। इसलिए ये झूठ परम्परागत हैं। यही वजह है कि इन झूठों को बोलते हुए व्यक्ति को पाप का बोध भी नहीं होता। 

मसलन- यह बार-बार कहा जाता है कि ‘शिक्षा का अधिकार सबके लिए है’। लेकिन यह आधा सच और आधा झूठ है। हालाँकि इतनी बार दोहराया जाता है कि यह सत्य प्रतीत होने लगता है। ऐसा लगने लगता है कि विद्यालयीन शिक्षा प्राप्त न कर पाना कोई अपराध है। विद्यालयीन शिक्षा ही जीवन का ध्येय हैञ इसके बिना मनुष्य मनुष्यों की श्रेणी से गिर जाएगा। जबकि हमें समझना होगा कि मात्र विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा ही सब कुछ नहीं है। 

इस सम्बन्ध में एक श्लोक है, “आचार्यात्पादमादत्ते पादं शिष्यः स्वमेधया। पादं सब्रह्मचारिभ्यः पादं कालक्रमेण च॥  (आपस्तम्बधर्म सूत्र 7/29) “

अर्थात् : शिष्य शिक्षा का एक चौथा भाग ही अपने गुरु से सीखता है। एक चौथाई भाग वह अपनी बुद्धि से खुद समझता है। एक चौथाई भाग वह अपने सहपाठियों से सीखता है। और अन्तिम एक चौथाई भाग वह कालक्रम अर्थात् समय के साथ-साथ अपने अनुभव से सीखता है।

असल में हम जिस विद्यालयीन शिक्षा की बात करते हैं, वास्तव में वह जीवन के कुछ क्षेत्रों में ही सहायक है। वह जीवन का अन्तिम उद्देश्य नहीं हो सकती। जीवन का उद्देश्य तो श्रेष्ठ मानव का निर्माण है। लेकिन हमने भौतिक सुख साधन एकत्र करने हेतु ऐसा अमानवीय तंत्र विकसित कर दिया है, जिसे बनाए रखने हेतु मानव का दोहन अमानवीय स्थिति तक पहुँच चुका है। विद्यालय भी कहीं न कहीं इस दोहन के प्रशिक्षण केन्द्र के रूप में ढल रहे हैं। ताकि भविष्य में मानव को एक संसाधन मात्र बनाकर अन्य संसाधनों के दोहन में सहायक बनाया जा सके। इसीलिए हर बच्चे को एक सी शिक्षा, एक सा प्रशिक्षण देकर ऊपर से आए आदेशों का यंत्रवत पालन करने वाले के रूप में ढाला जा रहा है।

जबकि मानव को न्यूनतम सामाजिक मानवीय मूल्यों से युक्त होने की व्यवस्था और वैसे वातावरण का निर्मित करना शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए। जैसी शिक्षा व्यवस्था प्राचीन भारतीय समाज में रही भी है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे उद्देश्य प्राचीन भारतीय शिक्षा के हुआ करते थे। अब भी वैसे ही होने चाहिए थे। ताकि विद्यार्थी अपनी समझ का विकास करता। अपनी क्षमताओं को अपने अभिभावकों और प्रशिक्षकों की सहायता से पहचान जीवन का लक्ष्य तय करता। लेकिन आज शिक्षा केन्द्र आधुनिक और सुविधाओं से युक्त तो हो रहे हैं, पर अपने वास्तविक उद्देश्यों से दूर जा रहे हैं। विद्यालयों में भौतिक सुविधाएँ होना, बेहतर शिक्षा व्यवस्था का परिचायक नहीं है। शिक्षा जब तक विद्यालय आने वाले विद्यार्थी को आत्मोत्कर्ष, आत्मोन्नति हेतु प्रेरित नहीं करती तो तब तक वह असफल है।

इसीलिए हमें अपने स्वयं के व्यवहार से आज की परिस्थितियों के अनुसार अपने आचरण में जीवन्त रूप से उन्नत चरित्रों की स्थापना करनी होगी। तभी विद्यार्थी प्रेरित हो पाएगा। ध्यान रखें, अगर उसका सामाजिक परिवेश उसे ऐसी परिस्थिति उपलब्ध नहीं कराता तो वह कभी न तो ठीक से सीख पाएगा न प्रेरित हो सकेगा। 

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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)

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