बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से
महाराज के साथ आगरा गए सब लोग स्वराज्य में लौट आए। कवीन्द्र परमानन्द भी दौसा तक आ गए लेकिन वहाँ पर वे पकड़े गए। उन्हें पकड़ा था मिर्जा राजा के आदमियों ने। जल्दी ही उन्होंने परमानन्दजी को छोड़ भी दिया। हिरोजी फर्जन्द और मदारी मेहतर भी गाहे-बगाहे राजगढ़ पहुँच गए। महाराज ने सम्भाजी राजे को मथुरा में रख छोड़ा था। राजगढ़ आने पर स्वयं महाराज ने ही अफवाह उड़ा दी कि परेशानियों से बेहाल हो सम्भाजी मर गए। उद्देश्य यही था कि सम्भाजी जब मथुरा से स्वराज्य में लौटेंगे तब उन्हें मुगली जासूसों अथवा सेना से कोई परेशानी न हो। उनकी ‘मौत’ की इस अफवाह से उन्हें दक्षिण में सुरक्षित आने में आसानी हो।
महाराज का यह दाँव भी सफल हुआ। सम्भाजी राजे को लेकर विसाजीपन्त और काशीपन्त राजगढ़ ठीक-ठाक पहुँच गए (दिनांक 21 नवंबर 1666)। लेकिन रघुनाथ बल्लाल कोरडे और त्र्यम्बक सोनदेव डबीर अब भी औरंगजेब की कैद में असहनीय यंत्रणाएँ झेल रहे थे। ये दोनों जाने कैसे आगरे में ही रह गए थे और फिर पकड़े गए। उनके पकड़े जाने से महाराज काफी परेशान थे। रिश्ते में एक-दूसरे के साले लगने वाले इन वकीलों की रिहाई के लिए महाराज ने औरंगजेब को पत्र लिखे। राजनीतिक चालाकी से भरे थे वे पत्र। उनमें लिखा था, “आपकी अनुमति लिए बिना में आगरा से निकल आया। इस बात का मुझे बहुत खेद है। फिर भी में आपका विनम्र सेवक हूँ। मेरे बेटे, सम्भाजी राजे बादशाह की पाँचहजारी मनसबदारी जरूर करेंगे। मेरे सभी किले और दौलत आपकी सेवा में अर्पित हैं।”
औरंगजेब को डर था कि यह बिगड़ा हुआ शेर फिर से बगावत पर उतरेगा। लेकिन उसकी विनम्रता देख् अब उसे खुशी ही हुई थी। लेकिन उसे क्या मालूम था कि महाराज सच में बगावत करेंगे पर अच्छी तरह ताकत जुटाने के बाद ही। उन्हें तो उसके लिए अवधि चाहिए थी। इसीलिए यह लीपातोती हो रही थी। और इसका अपेक्षित परिणम भी हुआ। रघुनाथ बल्लाल और त्र्यम्बक सोनदेव को रिहा कर दिया गया (दिनांक 3 अप्रैल 1667)। सात महीने दोनों ने यम-यातनाएँ सहीं। आगरा कांड में सबसे अधिक यातनाएँ इन दोनों को ही भोगनी पड़ीं। पर राजगढ़ पहुँचने पर वे महाराज से मिले और उन यातनाओं का भूल ही गए।
महाराज आगरे के कारावास में थे तब रघुनाथजी कोरडे और त्र्यम्बकजी डबीर ने उनकी मुक्ति के लिए कई षड्यंत्र किए थे। हर तरह की तैयारी की थी। इसीलिए उन दोनों के यातनापूर्ण कारावास की खबर सुनकर महाराज के कलेजे पर छुरियाँ चल रही थी। इसीलिए उन्होंने राजनीतिक चतुरता और नम्रता से भरा पत्र औरंगजेब को लिख भेजा था। इसके नतीजे में सात महीने की कैद से दोनों की रिहाई हुई थी। महाराष्ट्र में आते ही दोनों सीधे राजगढ़, महाराज के कदमों में पहुँच गए। उन्हें देख महाराज की आँखें भीग आई। उन्होंने दोनों को गले लगाया। भावना के आवेग से तीनों के गले भर्राए हुए थे।
लेकिन उधर, नेताजी पालकर को गिरफ्तार कर लिया गया था। तुरन्त उन्हें दिल्ली ले आया गया। यह खबर औरंगजेब को दे दी गई। उसने नेताजी को नवाब फिदाई खान के जिम्मे सौंप दिया। इस ताकीद के साथ कि नेताजी पर कड़ा पहरा रखा जाय। नेताजी समझ ही नहीं पा रहे थे कि उन्हें एकाएक कैद क्यों किया गया? किस गुनाह की यह सजा है? और वह कितने दिन भुगतनी पड़ेगी? आखिर इस बिलावजह गिरफ्तारी से छुटकारा कब मिलेगा? उनके सवालों के जवाब कोई नहीं दे सकता था। चकमा शिवाजी राजे ने दिया था और उसका बदला बादशाह नेताजी से ले रहा था। यह कारावास शायद आजीवन ही था और मौत भी औरंगजेब की क्रूर असहनीय रीति से ही मिलने वाली थी। ऐसा लग रहा था। हालाँकि कारावास और मौत का पर्याय सिर्फ एक ही था, धर्मान्तरण।
तीन दिन तक नेताजी ने असहनीय यातनाएँ झेलीं। चौथे दिन नबाब फिदाई खान से कह दिया कि उसे मुसलमान होना मंजूर है। नेताजी के इस निर्णय से सब चकित रह गए। औरंगजेब तो बहुत ही खुश हुआ। उसने नेताजी को मुसलमान धर्म की दीक्षा दी। उसका नाम रखा गया मुहम्मद कुलीखान (दिनांक 27 मार्च 1667)। पाँच हजारी मनसब देकर उसे महावत खान के मातहत तैनात किया गया। फिर औरंगजेब ने महावत को हुक्म दिया कि नेताजी को लेकर काबुल की मुहिम पर निकल जाए। महावत और नेताजी ने काबुल की तरफ कूच किया। एक समय का स्वराज्य और महाराज का निष्ठावान् सेनानी दुर्दशा के फेर में पड़ गया। नेताजी के दिमाग में मुहिम के बीच में से ही महाराष्ट्र भाग आने के ख्याल लगातार घुमड़ने लगे।
महावत और नेताजी की फौज लाहौर पहुँची (जुलाई 1667)। तभी रात के अन्धेरे में नेताजी छावनी में से भाग निकले। पर हाय। जल्दी ही वह फिर पकड़े गए। कोड़े से खूब पिटाई हुई। फिर उनके जख्मों पर मरहमपट्टी की निकालाओ मनुची ने। इसके बाद कुछ ही दिनों में नेताजी को महावत के साथ काबुल जाना पड़ा। महाराष्ट्र बहुत पीछे रह गया था। अब अफगानों के साथ लड़ना यही एक पर्याय था नेताजी के पास। नेताजी की ही तरह रघुनाथपंत और त्र्यम्बकपंत भी औरंगजेब के शिकंजे में फँस गए थे। लेकिन उनका मुकद्दर अच्छा था कि वे स्वराज्य में वापस आ पाए। पर बेचारे नेताजी का अन्दाज गलत ही साबित हुआ। नेताजी को महावत खान के साथ काबुल की मुहिम पर जाना पड़ा। चिनाब, झेलम और सिन्धु नदियों को उनकी सेना ने पार किया। हिन्दुकुश की ऊँची चोटियाँ देख उसे सह्याद्रि की चोटियाँ याद आईं। एक कसक-सी उठी उनके सीने में।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।)
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ
38- शिवाजी ‘महाराज’ : कड़े पहरों को लाँघकर महाराज बाहर निकले, शेर मुक्त हो गया
37- शिवाजी ‘महाराज’ : “आप मेरी गर्दन काट दें, पर मैं बादशाह के सामने अब नहीं आऊँगा”
36- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी की दहाड़ से जब औरंगजेब का दरबार दहल गया!
35- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठे थके नहीं थे, तो फिर शिवाजी ने पुरन्दर की सन्धि क्यों की?
34- शिवाजी ‘महाराज’ : मरते दम तक लड़े मुरार बाजी और जाते-जाते मिसाल कायम कर गए
33- शिवाजी ‘महाराज’ : जब ‘शक्तिशाली’ पुरन्दरगढ़ पर चढ़ आए ‘अजेय’ मिर्जा राजा
32- शिवाजी ‘महाराज’ : सिन्धुदुर्ग यानी आदिलशाही और फिरंगियों को शिवाजी की सीधी चुनौती
31- शिवाजी महाराज : जब शिवाजी ने अपनी आऊसाहब को स्वर्ण से तौल दिया
30-शिवाजी महाराज : “माँसाहब, मत जाइए। आप मेरी खातिर यह निश्चय छोड़ दीजिए”
29- शिवाजी महाराज : आखिर क्यों शिवाजी की सेना ने तीन दिन तक सूरत में लूट मचाई?
28- शिवाजी महाराज : जब शाइस्ता खान की उँगलियाँ कटीं, पर जान बची और लाखों पाए
27- शिवाजी महाराज : “उखाड़ दो टाल इनके और बन्द करो इन्हें किले में!”
26- शिवाजी महाराज : कौन था जो ‘सिर सलामत तो पगड़ी पचास’ कहते हुए भागा था?
25- शिवाजी महाराज : शिवाजी ‘महाराज’ : एक ‘इस्लामाबाद’ महाराष्ट्र में भी, जानते हैं कहाँ?
24- शिवाजी महाराज : अपने बलिदान से एक दर्रे को पावन कर गए बाजीप्रभु देशपांडे
23- शिवाजी महाराज :.. और सिद्दी जौहर का घेरा तोड़ शिवाजी विशालगढ़ की तरफ निकल भागे
22- शिवाजी महाराज : शिवाजी ने सिद्दी जौहर से ‘बिना शर्त शरणागति’ क्यों माँगी?
21- शिवाजी महाराज : जब 60 साल की जिजाऊ साहब खुद मोर्चे पर निकलने काे तैयार हो गईं
20- शिवाजी महाराज : खान का कटा हुआ सिर देखकर आऊसाहब का कलेजा ठंडा हुआ
19- शिवाजी महाराज : लड़ाइयाँ ऐसे ही निष्ठावान् सरदारों, सिपाहियों के बलबूते पर जीती जाती हैं
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