संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 28/8/2021
जीवन में जब होने, खोने और पाने के मायने जल्दी समझ आ जाते हैं, तो समझदार व्यक्ति ही आगे जाने या ख़ुद को ख़त्म करने का निर्णय लेता है।
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आत्महत्या हल नहीं परन्तु कम से कम अपने को सब प्रपंचों से दूर ताे किया ही जा सकता है।
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हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने ही एकाकी और दुखी होते हैं।
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जीवन में नाटक सीखते-करते हुए भी यदि हम अपने एक-एक पल और दिन को मंच की भाँति नहीं मान सकते, जीवन में मिले और प्रकृति प्रदत्त रिश्तों को चरित्र मानकर उनसे संवाद नहीं कर सकते, तो हमारा यवनिका में चले जाना ही बेहतर है।
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फिर कहता हूँ, पीछे छूटे हुए वे लोग वन्दनीय हैं, जो सब भूलकर फिर से जीवन के संघर्ष पथ पर लौट आते हैं। चलने का पराक्रम करते हैं।
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हम सब स्मृतियों में लम्बे समय रह सकते हैं। उस सबको याद करके घंटों जीवन के उन स्वर्णिम पलों को जी सकते हैं, जिनसे हमने ऊर्जा पाई थी। पर इससे हल नहीं निकलेगा। सब कुछ छोड़ना ही पड़ता है एक दिन।
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एक फूल को तोड़ना भी हिंसा है तो अपने आपको ख़त्म कर लेना भयानक हिंसा हुआ। और शायद पूरी प्रकृति के ख़िलाफ़ एक मनुष्य का उद्घोष भी। लेकिन इसके लिए उसकी तारीफ़ की जानी चाहिए जो रस्सी का फन्दा लगाकर झूल गया और सब छोड़ गया।
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हम सबको एकांत में रहने की, अपने आप से जूझने की और एकालाप के दौरान लड़कर जीतने के प्रशिक्षण की ज़रूरत है। यह हमें मनुष्य होने के नाते नहीं मिलता और एक दिन अपनी ही बनाई हुई कन्दराओं में भटक कर हम ख़त्म हो जाते हैं।
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सबसे ज़्यादा दुख हमें अपने लोगों से मिलता है। पर अफ़सोस, हम कह नहीं पाते। अपने आप से जूझते रहते हैं। नाटक करते हैं, खुश और दुखी होने का। अन्त में एक दिन थक हारकर अपने को ख़त्म करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।
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हम अपने लोगों को भी कुछ कह नहीं पाते। अपने हमें सुन भी नहीं पाते। अपने हमारे वस्तुतः हैं ही नहीं। ‘वे अपने हैं’ इस तमगे को ढोते हुए हम, वो एक भ्रम में जीते रहते हैं।
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मरना सहज है, जीना कठिन। पर जब कोई मरने का निर्णय लेता है, तो उसका सम्मान किया जाना चाहिए। इसलिए कि साहस के साथ मौत को गले लगाने का काम भी संसार में बिरले लोग ही कर पाते हैं।
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आत्महत्या का महिमामंडन नहीं करना है। पर कम से कम मरने वाले का अनादर न हो यह हमें ध्यान रखना होगा। एक वयस्क का निर्णय सर्वोपरि होता है। उसका सम्मान किया जाना चाहिए।
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आइए, हम उन सबके लिए मौन रखें जो यहाँ से विदा हो गए हैं। जीने की उद्दंड आशा के ख़िलाफ़ बग़ावत करके।
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 25वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
24वीं कड़ी : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23वीं कड़ी : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22वीं कड़ी : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा
21वीं कड़ी : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो
20वीं कड़ी : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं
19वीं कड़ी : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें!
18वीं कड़ी : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा
17वीं कड़ी : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!
16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?
15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!
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