सांकेतिक तस्वीर
नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश
अंग्रेजी के जाने-माने लेखक और कहानीकार रुडयार्ड किपलिंग की कालजयी रचना ‘द जंगल बुक’ में मंगलवार, 4 जनवरी को एक नया ‘रोचक-सोचक’ क़िस्सा जुड़ गया। यह नया क़िस्सा काल्पनिक न होकर, सच्चा है और सिवनी, मध्य प्रदेश के उसी पेंच राष्ट्रीय उद्यान से है, जिसका ‘द जंगल बुक’ में किपलिंग साहब ने बार-बार ज़िक्र किया है। इस नए क़िस्से में हुआ यूँ है कि ‘शेर खान’ (‘द जंगल बुक’ में इस नाम का प्रमुख क़िरदार है।) यानि बाघ अपने शिकार (जंगली सुअर) का पीछा करते हुए दौड़ तो बहुत तेज लगाते हैं, लेकिन रुकना भूल जाते हैं। ब्रेक लगाना भूल जाते हैं और उसी कुएँ में जा गिरते हैं, जिसमें उनके आगे-आगे उनका शिकार गिरा है।
हालाँकि कुएँ में गिरते ही ‘शेर खान’ और उनका शिकार दोनों मारना-बचना भूलकर अपनी जान बचाने की जुगत में लग जाते हैं। इतने में ग्रामीणों को उनकी ख़बर मिल जाती है। वे वन विभाग को तुरन्त सूचित करते हैं। वहाँ का बचाव दल आकर काफ़ी मेहनत के बाद दोनों को सुरक्षित निकाल लेता है। फिर उन्हें जंगल में छोड़ दिया जाता है। बचाव कार्य के दौरान ‘शेर खान’ बचावकर्मियों के साथ तो सहयोग करते ही हैं, बगल में तैर रहे अपने शिकार के प्रति भी आक्रामकता नहीं दिखाते। सम्भवत: उनके इस आपसी सहयोग की वजह से भी दोनों सुरक्षित निकल सके। जंगल के नियम-क़ायदे भी अद्भुत हैं न? वाक़िआ पिपरिया के नज़दीकी हरदुली गाँव का है।
नीचे देखिए, उस घटना एक वीडियो दिया गया है। इसे वनों और वन्यजीवों के हित के लिए लगातार अभियान चलाने वाले कार्यकर्ता अजय दुबे ने सोशल मीडिया पर साझा किया है।
वैसे, जिन्हें याद न हो या फिर जिन्होंने ‘द जंगल बुक’ पढ़ी, सुनी अथवा देखी ही न हो उन्हें बता दें कि किपलिंग साहब की उन कहानियों में भी ‘शेर खान’ अपने शिकार ‘मोगली’ (मुख्य क़िरदार) का पीछा तो ख़ूब करते हैं। लेकिन उसे मार नहीं पाते। किपलिंग साहब की कहानियों में ‘मोगली’ अनाथ बच्चा है, जिसे घने जंगलों में भेड़ियों का झुंड पाल-पोषकर बड़ा करता है। लेकिन ‘शेर खान’ उसे इसलिए मारना चाहते हैं क्योंकि वह आदम का बच्चा है। लिहाज़ा उसको बचाने के लिए उसके पालक भेड़िए ही नहीं, ‘बघीरा’ (काला पैन्थर) और ‘बालू’ (भालू) भी भरपूर जुगत भिड़ाते रहते हैं। इस क़वायद में ‘बघीरा’ उसका गुरु और ‘बालू’ दोस्त बन जाता है।
दूरदर्शन पर 1993 ‘द जंगल बुक’ की एनिमेशन श्रृंखला प्रसारित हुई थी। हालाँकि पहली बार यह एनिमेशन श्रृंखला 1989 में जापान में प्रसारित हुई। लेकिन जब यह हिन्दी में आई तो इसकी मशहूरियत ने अन्य सब भाषाओं के संस्करणों को पीछे छोड़ दिया। हिन्दी में डब संस्करण के लिए नाना पाटेकर, ओम पुरी, जैसे महान् फिल्म अभिनेताओं ने आवाज़ें दी थीं और मशहूर गीतकार, शायर गुलज़ार साहब ने शीर्षक गीत लिखा था,
‘जंगल-जंगल बात चली है, पता चला है। चड्ढी पहन के फूल खिला है फूल खिला है।।
एक परिन्दा था शर्मिन्दा था वो नंगा। इससे तो अंडे के अन्दर था वो चंगा।।
सोच रहा है बाहर आख़िर क्यूँ निकला है। चड्ढी पहन के फूल खिला है, फूल खिला है।।”
याद आया? न आया हो, तो नीचे उस एनिमेशन श्रृंखला के पहले एपिसोड का वीडियो है। देख डालिए। क्या पता जंगल और जंगली जानवरों के प्रति सोचने-समझने का तरीक़ा बदल जाए!
किपलिंग साहब की ‘द जंगल बुक’ पर इसी नाम से 1967 और फिर 2016 फिल्में भी बनी हैं। जबकि उनकी कहानी श्रृंखला की पहली क़िताब 1894 और दूसरी 1895 में प्रकाशित हुई थी। किपलिंग साहब वैसे थे तो अंग्रेज, मगर वह पैदा मुम्बई में हुए थे। कहते हैं कि वे हमारी ‘पंचतंत्र’ की कहानियों और ‘जातक कथाओं’ से प्रभावित थे। अक़्सर उन्हें अपनी नन्ही बेटी को सुनाया करते थे। उन्हीं से प्रेरित होकर उन्होंने बेटी के लिए ही शायद ‘द जंगल बुक’ की कहानियाँ लिखी थीं। हालाँकि उनकी वह पहली बेटी जोसेफाइन महज छह साल की उम्र में निमोनिया के वज़ह से दुनिया छोड़ गई। यह बात है साल 1899 की, जब किपलिंग साहब अमेरिका यात्रा पर गए थे। अलबत्ता, जोसेफाइन जिन कहानियों की प्रेरणा बनी, वे आज भी ज़िन्दा हैं। कालजयी चीज़ें वक़्त के साथ मरती नहीं।
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