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सवाल है कि 21वीं सदी में भारत को भारतीय मूल्यों के साथ कौन लेकर जाएगा?

समीर शिवाजी राव पाटिल, भोपाल, मध्य प्रदेश

विश्व-व्यवस्था एक अमूर्त संकल्पना है और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले घटनाक्रम ठोस जमीनी वास्तविकता होेते हैं। विश्व-व्यवस्था में हो रहे परिवर्तनों को लेकर जो कयास लगाए जा रहे हैं, उसकी ओर इशारा करने वाली बड़ी घटनाएँ हमें खबरों में देखने-सुनने को मिल रही हैं। इसके मायने यह है कि विश्व-व्यवस्था के स्तर पर जो संरचनात्मक बदलाव हो रहे हैं, वे वास्तविक घटनाओं से परिचालित हैं। बदलाव की इस बयार को अब नकारा या नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
आमतौर पर हम मान बैठते हैं कि राष्ट्र के हितों के अनुरूप सत्ताएँ कार्य करती हैं। वर्तमान में देखें तो इजराइल-गाजा, यूक्रेन-रुस युद्ध हो या डोनाल्ड ट्रम्प की क्रांतिकारी योजनाएँ और नीतियाँ। सारे बदलाव शुद्ध आर्थिक, रणनीतिक और राजनीतिक हितों को परिलक्षित करते दिखते हैं। लेकिन यह उथला और भौतिकवादी विचार है।

इसमें गहराई से देखें तो स्पष्ट होता है कि बदलाव मूल्यों को लेकर ही होते हैं। मूल्य जिन्हें एक व्यक्ति जीता है, व्यक्तियों के ऐसे मूल्यों के पारस्परिक क्रिया से सामाजिक मूल्य बनते हैं। सामाजिक मूल्यों की समरूप परम्परा संस्कृति होती है। इन्हीं मूल्यों के आधार पर किसी भू-भाग पर शासन की विधि राजनीति होती है और वह भूभाग एक राष्ट्र होता है। चूँकि मूल्यों के कारण-परिणाम तात्कालिक नहीं होते। वे एक सूक्ष्म और कुछ नैतिक दृष्टि की अपेक्षा रखते हैं, हम मूल्यों से होने वाले बदलावों पर कम ही ध्यान दे पाते हैं। जब इतिहास में कोई बदलावकारी समय आता है, तब ही हम मूल्यों के आधार पर घटनाओं को देखने की कवायद करते हैं।

आज हम ऐसे ही मोड़ पर हैं। हमें एक बार फिर अपने मूल्यों को परखने के लिए मजबूर किया गया है। औपनिवेशिक बढ़त लिए यूरोपीय-अमेरिकी प्रभुत्व वाली विश्व-व्यवस्था दरक रही है। आसन्न बहुध्रुवीयता यथार्थ में एशियाई मूल्यों के चढ़ते परवान का प्रतीक है। वर्तमान में तीन प्रमुख साभ्यतिक मूल्य हमारे पास उपलब्ध हैं – पहले- इस्लामी-ईसाइयत प्रभुत्व के दौर वाले अब्राहिमी औपनिवेशिक मूल्य। दूसरे- प्राचीन चीनी सभ्यता से आ रहे पैतृक राजनीतिक-साम्राज्यकारी मूल्य। तीसरे- भारतीय धार्मिक मूल्य। आने वाली सदी में दुनिया जो रूप अख्तियार करने को है, उसका वास्तु विज्ञान इनमें से प्रासंगिक मूल्यों में निहित है।

यदि यह बात ठीक से समझ में आ जाती है तो हमें स्पष्ट हो जाएगा कि भारत को भी अपने नीति-मूल्यों पर फिर से जाना होगा। चीन यह लगभग कर चुका है। बाहरी, विशेषकर यूरोपीय और अमेरिकी लोग चीन की शासन पद्धति को लाख गालियाँ देते हैं। वहाँ के मानव अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रदूषण की स्थिति को लेकर बुक्का फाड़कर रोना रो लेते हैं। इसके बावजूद वहाँ जनता और शासन में पारम्परिक ‘ताओ दर्शन’ से आने वाले चीनी पितृसत्तात्मक साम्राज्य के मूल्यों के आधार पर दुनिया में अपने स्थान को हासिल करने के लिए एक सहमति है। चीन ने पाश्चात्य भाषा, अपसंस्कृति इन्टरनेट और शिक्षा की घुसपैठ को रोक कर और पश्चिमी अकादमिक दुनिया से सम्बन्ध सिर्फ तकनीक और विज्ञान तक सीमित कर दिया है। इस तरह विरोधियों के सबसे बड़े हथियार को बोथरा कर दिया है। चीन विश्व की महाशक्ति बनना चाहता है। इसके लिए उसकी अपनी ऐतिहासिक अनुभव और बोध में पगी औपनिवेशिक दृष्टि है।

अब अपनी बात करें तो भारतीय नीति मूल्यों को फिर से उनके अधिकार का स्थान दिलाने के लिए हमारा मुकाबला संस्थागत हो गई औपनिवेशिक सोच, उसके आधार पर बने संविधान और सरकारी तंत्र से होता है। कुविद्या के कारण आम लोगों में सत्य, धर्म, सदाचार निष्ठा के प्रति उदासीनता से भी होता है। उदाहरण देखें- अंग्रेजी उपनिवेशवादी आने से पहले तक लगभग 2,000 साल से अधिक काल से भारत दुनिया की सबसे अधिक महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्था और ज्ञान-व्यवस्था था, तो उसका मूल वर्णाश्रम धर्म नीति मूल्य ही तो थे। मानव ही नहीं, जीव-जन्तु और प्रकृति के प्रति एक जिम्मेदारी और सहअस्तित्व का अन्तर्निहित भाव था जिससे एक शीलगुण सम्पन्न समाज पनपता था। उसके आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ही नहीं वर्णाश्रम बाह्य पंचम, यवन, खस, मलेच्छों के बीच एक पारस्परिक अन्योन्याश्रित सम्बन्ध था। इसके आधार पर यह दुनिया भर में श्रेष्ठतम ज्ञान, नीति, विचार और उत्पाद निर्यात करता था।

हालाँकि अब औपनिवेशिक दुष्प्रचार के तहत भारत में एक वर्ग अपने स्वयं के पारपमरिक दर्शन और विचारों पर मिथ्या आरोप मढ़, उन्हें अपमानित कर खुद को बड़ा गौरवान्वित महसूस करता है। हम सबने स्कूलों में जातिप्रथा के पक्ष-विपक्ष में फर्जी वाद-विवादों को देखा सुना है। कमोबेश वहीं सड़कछाप तर्कों से हमारी विधानसभा, अदालतें और मीडिया गुलजार रहती हैं। यह सब तमाशे दिखाकर हमारा श्रेष्ठी वर्ग दुनियाभर में अनुमोदन की याचना करता है। ऐसे में अपनी परम्परा पर ही थूकने वाला हमारा श्रेष्ठी वर्ग ‘यूजफुल इडियट’ ही रह जाता है। विदेशी लोग ऐसे तमाम तमाशे देखकर तालियाँ तो बजा देते हैं किन्तु अनुमोदन दाे कारणों से नहीं कर पाते। पहला- वे जानते हैं कि तथाकथित भारतीय खुद ही अपनी परम्परा के प्रतिनिधि नहीं। दूसरा- वह विदेशी खुद एक विरोधी और संकीर्ण मत वाले हैं। यह ठीक से समझने के लिए पाकिस्तान के पैरोकारों द्वारा गाँधी-नेहरु का आकलन देख लेना पर्याप्त है।

नीचे कुछ संकेत हमारे जीवन का अंग बन गए ऐसी हकीकत के हैं, जो वर्तमान की झाँकी दिखाते हैं। स्वतंत्र होने के बाद भी देश आयातित भाषा, रहन-सहन, खान-पान और लोक-संस्कृति को अपना कर बड़प्पन अनुभव करता है। स्वतंत्र देश में नागरिक के लिए आधारभूत ऐसे न्याय के अधिकार का व्यवसायीकरण कर राजनीतिक और सामाजिक जीवन से धर्म और नीति का ही अन्त कर दिया है। कानून के वीभत्स प्रहसन ही कहा जाएगा कि यदि कोई बाप अपनी 17 वर्ष की बेटी का सिर्फ विवाह (गौना नहीं) ही करें, तो कानून दुल्हे के साथ ही उसके और दुल्हन माँ-बाप, मौजूद रिश्तेदार, पंडित तक को कारावास देता है। वही, यदि किसी 13 वर्ष की बच्ची को शादीशुदा दो बच्चों का बाप भगा कर ले जाता है और उसके साथ सहवास कर उसे गर्भवती भी करता है, तो भी देश के उच्च न्यायालय ऐसे बालिग काे सजा नहीं देते और उस नाबालिग द्वारा कभी भेजे सन्देशों को उसकी यौन स्वीकृति मान लेते हैं।

मनोरंजन, मानव-स्वतंत्रता और आधुनिकता के नाम पर चरित्रहीनता और बदचलनी को शिक्षा का अंग बना दिया गया गया है। विकास की गति के लिए अनावश्यक पदार्थ और वस्तुओं का बेतहाशा उत्पादन और इसके लिए धरा-पहाड़, नदी, जंगल, जीव-जन्तु और मानव के शोषण का दुष्चक्र चल रहा है। यह हमारे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्य और हितों का नितान्त विरोधी है। इन सब से कुछ चन्द लोगों को कुछ चन्द सिक्के मिल रहे हैं जिन्हें कमाकर वो खुद को बड़ा भाग्यशाली समझ रहे हैं। तकनीकी और उत्पादन के नाम पर चल रही यह नीति बेहद अस्थाई और नुकसानदेह है।

यकीन मानिए आप हम बहुत भाग्यशाली है जो पिछले कई वर्षों से मानसून ठीक रहे हैं। फर्ज कीजिए यदि एक साल भी देश में बड़ा दुर्भिक्ष पड़ जाए तो यह सारा विकास किसी जान को बचाने में कामयाब नहीं रहेगा। हालाँकि समस्या इससे भी बड़ी है। इस विकास की अवधारणा से मानव जीवन का सन्तुलन ही बिगड़ रहा है। सबके साथ हमारे पारिवारिक और सामजिक जीवन में तेजी से जहर घुल रहा है। अपने आस-पास ही देखें तों तकरीबन हर रिश्तें में तनाव, शरीर में रोग, दिमाग में अवसाद और हर मन में विषाद बढ़ रहा है। यह हम सब अनुभव भी कर रहे हैं, लेकिन विकल्प का अभाव देखकर इसे एक तरफ धकेल देते हैं। इसके साथ हम भावी पीढ़ियों का स्वास्थ्य, नैतिक और परिपूर्ण जीवन को वर्तमान के लोग अपनी भोग-लोलुपता के लिए बेमौल बेच हैं।

पश्चिमी विकास की रोशनी से जिनकी आँखें चौंधिया नहीं गई हैं, यह तमाम बातें उस भारतीय मानस को सहज दृष्टिगोचर होती हैं। लेकिन जिन्हें तात्कालिक या स्थायी अन्धत्व आ गया है, उन्हें तो पीछे छोड़ना ही होगा क्योकि अब यह तो स्पष्ट है कि 21वीं सदी इस सब कचरे के साथ हमें प्रवेश नहीं देगी। हम जिन भारतीय नैतिक मूल्यों की बात कर रहे हैं, उन्हें आगे ले जाने की क्षमता देश की दलगत राजनीति और लोकतांत्रिक संरचना में नहीं। यहाँ जरूरत हर भारतीय नागरिक में उन प्राकृत सुलभ धार्मिक साभ्यतिक मूल्यों में विश्वास जगाने की है, जिसमें उसके घर, गाँव, देश और विश्व का मंगल निहित है। ऐसे मूल्य की आवश्यकता हमें अपने पड़ोसी, मित्र,उदासीन और शत्रु देश सबके लिए आवश्यक है। प्रवेश का सही समय आज हमारे पास उपलब्ध है। सवाल यह है कि भारतीय मूल्यों के अनुसार जीवन जीकर उन पर श्रद्धा-विश्वास परिपक्व कर देश को आगे ले जाने वाला नेता कहाँ हैं? 

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(नोट : समीर #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना से ही साथ जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि हैं। विशेष रूप से धर्म-कर्म और वैश्विक मामलों पर वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं। समीर ने सनातन धर्म, संस्कृति, परम्परा पर हाल ही में डायरी पर सात कड़ियों की अपनी पहली श्रृंखला भी लिखी है।) 

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