सुनो! ये दिवाली नहीं, दीवाली है

विकास, दिल्ली से

“सुनो! ये जो तुम दिवाली-दिवाली बोलती रहती हो न, ये दिवाली नहीं है। दीवाली है। दिवाली बोलती हो और दिवाली ही लिख देती हो। ग़लत ही बोलती हो। ग़लत ही लिखती हो।”

“सुनो! ये जो तुम ज्ञान दे रहे हो न, ये अपने ही पास रखो। क्योंकि दिवाली ही होता है। ज़रा गूगल करो। तमाम ख़बरों में दिवाली मिल जाएगा। दीवाली भी मिल जाएगा। दोनों ही सही हैं। और तुमको इतना ही कन्फ्यूज़न है तो तुम दीपावली बोल लो।”

“मतलब हम ग़लत ही बोलेंगे, ग़लत ही लिखेंगे। पर ख़ुद को ठीक नहीं करेंगे।”

“अच्छा चलो बताओ कि दिवाली क्यों ग़लत है?”

“दीपावली दीपों का त्यौहार है ना?”

“हां! दीपोत्सव है। और अब तुम वो घिसा-पिटा दीप+आवली मत बताने लगना मुझे।”

“नहीं! वो नहीं बताऊंगा। ये बताओ कि दीप को और क्या कहते हैं हिंदी में?”

“दीपक, दीया।”

“दिया तो नहीं कहते ना?”

“नहीं…!”

“क्योंकि दिया, देने की क्रिया का भूतकाल है। जो जलता है, प्रदीप्त होता है, वह दिया नहीं, दीया है। दीया मिर्ज़ा याद होंगी तुमको। उनका नाम भी इसी से निकला है।”

“हाँ तो! इस सबका दिवाली से क्या लेना-देना है?”

“लेना-देना है। धीर धरो। बता ही रहा हूँ। ये जो दीया है, ये होता था दीप। अपभ्रंश होकर बना दीया। और दीया का ही देशज रूप है दीवा।” तुमने माँ को, दादी को यह कहते सुना होगा कि – “दई-देवता कै दीवा चास दिया?”

“हाँ यार। सुना तो है! कभी ध्यान नहीं दिया।”

“तो अब ध्यान दो! इसमें जो दई है, वह देवता के लिए ही इस्तेमाल होता है। देवता का ही अपभ्रंश रूप है दई। और चास है, प्रज्ज्वलन का अपभ्रंश। उसी से निकला जलाना, चासना। गाँवों में कहा जाता है। बत्ती चस गई। मतलब जल गई।”

“वाह यार…”

“और सुनो अभी। तुमने सिद्धों की लोककथाएं सुनी होंगी।”

“कौन सिद्ध”

“अरे वही जिनके लिए कहा जाता है कि फलां-फलां तंत्र विद्या जानता है और सिद्ध है।”

“अच्छा…”

इन सिद्धों ने आठवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक लोकभाषा में साहित्य का भी सृजन किया। इसी से एक दोहा मिलता है-

‘‘घर ही बइसी दीवा जाली।
कोणहिं बइसी घंडा चाली।’’

“और इसका मतलब क्या हुआ?”

“इसका मतलब हुआ कि घर में बैठे-बैठे दीपक जलाते हैं और एक अलग स्थान पर बैठकर घंटा बजाते हुए भजन करते हैं।” तो तुमने देखा होगा कि इसमें भी दीवा ही आया है। अब तुम समझ सकती हो कि दिवाली होता है या दीवाली?

“हां यार दीवाली ही सही लगता है।”

और एक बात! दिवाली में दिवालियेपन-सा फील आता है। जैसे दिवाला निकल आया हो। और दीवाली तो दिवाले से ठीक उलट है। जिसका दिवाला निकला हो, उसके यहां दीवाली नहीं मनती। :P”

“हाहाहाहा। अब मैं कभी नहीं भूलूंगी कि दिवाली नहीं होती, दीवाली होती है।”

“और भूली तो अगली बार संस्कृत के वाचस्पत्यम् का ज्ञान दूंगा। फिलहाल दीप जलाओ, दीवाली मनाओ।”

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