नीलेश द्विवेदी, भोपाल, मध्यप्रदेश से, 19/9/2020
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के बाहरी इलाके में स्थापित ध्रुपद संस्थान पिछले 15-20 दिनों से चर्चाओं में बना हुआ है। वैसे देश और दुनिया में यह संस्थान चर्चित तो पहले से भी रहा है। लेकिन पहले और अब में फर्क है। पहले यह सकारात्मक संगीतिक कारणों चर्चा में रहता था और अभी नकारात्मक व्यक्तिगत कारणों से है। बल्कि मौज़ूदा कारणों को व्यक्तिगत कहना भी ठीक नहीं होगा। वे व्यक्तिगत तो तब तक थे, जब तक संस्थान के गलियारों की कानाफूसी में समाए हुए थे। लेकिन अब तो सार्वजनिक मंचों पर सबके सामने हैं। बहस का केन्द्र बने हुए हैं और उसके जरिए हमें बता रहे हैं कि ध्रुपद संस्थान में जो रहा है, उसके लिए कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार हैं। कैसे? इसके जवाब से पहले ये याद कर लेना जरूरी है कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की नींव कहलाने वाली गायकी विधा ‘ध्रुपद’ को समर्पित संस्थान में हो क्या रहा है?
इस बाबत ताजा ख़बर। संस्थान की ओर से अभी 16 सितम्बर को ही एक बयान जारी किया गया। इसमें बताया गया कि संस्थान के पखावज गुरु और गुन्देचा भाइयों में सबसे छोटे अखिलेश पर लगे आरोपों की जाँच के लिए नई समिति बनाई गई है। इसमें राष्ट्रीय विधि संस्थान विश्वविद्यालय (एनएलआईयू) की व्याख्याता राका आर्य, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व सदस्य गगन सेठी, एकलव्य फाउंडेशन से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ता अनु गुप्ता सदस्य हैं। इनके अलावा संस्थान के ही दो विद्यार्थी अंकिता अठावले और सीएस बालासुब्रमण्यन भी बतौर सदस्य शामिल हैं। वैसे ऐसी समिति पाँच-सात दिन पहले भी बनी थी। उसमें सामाजिक कार्यकर्ता सुषमा अयंगर, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की बहू मोना, भारतीय प्रशासनिक सेवा की सेवानिवृत्त अधिकारी अंशू वैश आदि शामिल थीं। लेकिन ध्रुपद विद्यार्थियों ने इस समिति का विरोध कर दिया और वे संस्थान छोड़कर जाने लगे। तब मामला शान्त करने के लिए नई समिति गठित की गई, जो अब तीन महीने में जाँच पूरी करेगी, ऐसा कहा जा रहा है।
सो अगला स्वाभाविक सवाल ये कि आख़िर माज़रा क्या है, जो बात यहाँ तक पहुँची? इसका जवाब ‘ध्रुपद फैमिली यूरोप’ नाम के फेसबुक समूह पर मिलता है। जैसा नाम से जाहिर है, यह ध्रुपद विद्यार्थियों का सम्मिलित प्रयास है। इसमें 658 से ज्यादा सदस्य हैं। इस पर नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम की एक योग शिक्षक का लिखा पत्र सितम्बर के शुरू में पोस्ट किया गया। यह पत्र संस्थान के प्रमुख और गुन्देचा भाइयों में सबसे बड़े उमाकान्त के नाम था। इसमें आरोप लगाया गया था कि ध्रुपद “गुरुकुल में विद्यार्थियों की अस्मिता से खिलवाड़ किया जाता है। अखिलेश ख़ास तौर पर महिला विद्यार्थियों का यौन शोषण करते हैं। उन्हें मजबूर कर, डरा-धमकाकर उनके साथ यौन सम्बन्ध बनाते हैं। हास-परिहास में उनके निजी अंगों को छूते हैं। पुरुष विद्यार्थियों के साथ भी दुर्व्यवहार होता है। ऐसे कृत्यों में रमाकान्त गुन्देचा (अब स्वर्गीय) भी शामिल रहे हैं।” पत्र में माँग थी कि अखिलेश गुन्देचा को तुरन्त संस्थान की गतिविधियों से पूरी तरह बर्ख़ास्त किया जाए। क्योंकि वे संस्थान की प्रतिष्ठा पर बट्टा लगा रहे हैं।
मूल मुद्दा इतना ही है। हालाँकि इसके बाद जो हुआ, वह जानना हमारे ज्यादा जरूरी होना चाहिए क्योंकि उसमें ऐसा बहुत-कुछ है, जो किसी भी संवेदनशील मन-मानस को झकझोरता है। दरअसल जैसे ही आरोप सामने आए, भोपाल से लेकर देश-दुनिया तक सामाजिक माध्यमों (फेसबुक, व्हाट्स ऐप आदि पर क्योंकि मीडिया को तो ऐसे मामलों के लिए अभी फुर्सत नहीं है) के जरिए बहस चल पड़ी। इन बहसों में स्वाभाविक तौर पर ‘कुछ लोग’ ऐसे थे, जो खुलकर इस मामले की निन्दा कर रहे थे। इस तरह की हरकत से संगीत जैसी पवित्र विधा को दूषित करने वालों का बहिष्कार करने की माँग कर रहे थे। लेकिन इन ‘कुछ’ लोगों के बीच ‘बहुत लोग’ ऐसे थे, जो आरोप लगाने और सवाल करने वालों पर ही प्रश्नचिह्न लगा रहे थे। सबूत माँग रहे थे।
ऊपर जिस फेसबुक समूह का जिक्र है और जिसके माध्यम से यह मामला सामने आया, उस पर ही तमाम टिप्पणियाँ देखी-पढ़ी जा सकती हैं। ये ऐसे ‘बहुत लोगों’ की मानसिकता का प्रमाण देती हैं। और दिलचस्प ये कि इन ‘बहुत लोगों’ में कई तो नामी-गिरामी हैं। मसलन, एक बड़े और वरिष्ठ पत्रकार ने अंग्रेजी में टिप्पणी की। इसका अनुवाद यूँ था, “जो लिखा (आरोप) गया है, वह गुरुकुल को बदनाम करने की अन्तर्राष्ट्रीय साजिश जैसा लगता है। मैं मान नहीं सकता कि रमाकान्त जी विद्यार्थियों के साथ ऐसा करने की सोच भी सकते हैं… कृपया, भारत के शीर्ष गायकों को बदनाम करना बन्द करें।” बतात चलें कि ये ‘वरिष्ठ पत्रकार’ पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्र महाजन के साथ सम्बद्ध रहे हैं। मध्यप्रदेश से ही ताल्लुक रखते हैं और देश के कई बड़े हिन्दी, अंग्रेजी अखबारों में सम्पादक रह चुके हैं। इस सन्दर्भ में भोपाल के संगीतकारों के एक व्हाट्स ऐप समूह में आए-गए संदेशों का उल्लेख भी हो सकता है। हालाँकि इस उल्लेख में किसी का नाम देना बहुत आवश्यक नहीं होना चाहिए क्योंकि बात लोगों की नहीं, उनकी मानसिकता की हो रही है। तो इस समूह के कुछ सदस्यों ने जोर दिया कि ध्रुपद संस्थान के “मसले पर चर्चा होनी चाहिए। कोई रास्ता निकालना चाहिए।” जवाब में एक वरिष्ठ कलाकार ने लिखा, “…कानून अपना काम करेगा, हम आपसी चर्चा कर कुछ प्रभाव नहीं डाल सकते।” बताते चलें कि ये ‘वरिष्ठ कलाकार’ भारत भवन के न्यास (ट्रस्ट) में बतौर सदस्य शामिल रहे हैं।
दरअसल, यही हमारी सबसे बड़ी समस्या का मूल भी है। हम गलत होते हुए, दुराचार होते हुए देखते हैं। सुनते हैं। जानते हैं। समझते हैं।…. पर करते कुछ नहीं। इसीलिए समाज की सबसे छोटी संगठित इकाई ‘परिवार’ से लेकर बड़ी इकाईयों तक ‘प्रभावशाली यौन कुंठित लोग’ हमारे बच्चों, किशोरों, युवाओं को अपनी यौन कुंठा का शिकार बनाते हैं और हम देखते रहते हैं। बर्दाश्त कर लेते हैं। चुप रह जाते हैं। मान लेते हैं कि, “हम आख़िर कर भी क्या सकते हैं।” अपनी चुप्पी के हम तर्क गढ़ लेते हैं। जैसे, ‘समाज में बदनामी हमारी भी तो होगी”, “दुराचार करने वाला प्रभावशाली व्यक्ति हमें नुकसान पहुँचा देगा” आदि। अलबत्ता सच ये है कि हमारी चुप्पी, हमारी निष्क्रियता से ‘यौन कुंठित लोगों’ (वे चाहे घर के हों या संगठन-संस्था के) को सिर्फ प्रोत्साहन मिलता है। और हमारे खाते में मात्र उत्पीड़न आता है। शारीरिक, मानसिक, आत्मिक।
यहाँ अल्बर्ट आइंस्टीन की कही एक बात याद आती है, “दुनिया को बुरे लोग अधिक नुकसान नहीं पहुँचाते। बल्कि वे लोग ज़्यादा नुकसान पहुँचाते हैं, जो तमाम चीजों को होते हुए चुपचाप देखते रहते हैं। करते कुछ नहीं हैं।” इसीलिए अगर हम बदलाव चाहते हैं तो हमें आगे आकर कुछ करना होगा। अन्यथा ध्रुपद संस्थान में जो हो रहा है और समाज की विभिन्न इकाईयों में उसी तरह का जो संक्रमण पसरा हुआ है, उसके लिए हम बराबर के उत्तरदायी माने जाएँगे। बल्कि शायद आरोपितों से कुछ ज्यादा ही।
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