हम भोजन को भगवान मानते हैं और रोज उनका तिरस्कार करते हैं!

टीम डायरी, 7/6/2021

उसका घर कॉलोनी के नुक्कड़ पर है। सामने तीन तरफ़ जाने वाले रास्ते तिकोने से जुड़ते हैं। वहीं एक तरफ़ उस रिहाइश (कॉलोनी) का दरवाज़ा है। उसके घर के बाहरी चबूतरे से चिपका हुआ। उस दरवाजे का, घर के सामने वाला जो पल्ला है न, उसके ठीक पीछे एक पत्थर की फर्शी रखी है। गन्दे नाले का एक उधड़ा सा मुँह बन्द करने के लिए। मगर अज़ीब-व-गरीब हाल ये कि वह फर्शी गन्दे नाले का मुँह तो बन्द कर देती है लेकिन रईस दिमागों की गन्दगी को रोज़ ही उघाड़ दिया करती है।

दरअसल, वहीं आस-पड़ोस में तमाम रईस ज़ेहन बसा करते हैं। समाज में जो ऊँचे तबके कहे जाते हैं न, उन्हीं के। इनमें तमाम ऐसे हैं, जिनमें बचपन से भरा जाता है, “श्रीविष्णु सृष्टि के पालनकर्ता हैं। अत: वह अन्न रस देवता हैं।” इन दिमागों में ये भी बिठाया जाता है, “विष्णुसहस्रनाम में श्रीविष्णु का 142वां नाम ‘भोजन’ और 143वां भोक्ता है। इसीलिए भोजन करते वक़्त ‘भोजनाय नमः’ और ‘भोक्ताय नमः’, अर्थात ‘अन्न को नमस्कार’, ‘अन्न खाने वाले को नमस्कार’, ऐसा कहते हैं।” उन्हें ये भी बताया जाता है कि भारतीय सनातन परम्परा में अन्न की एक देवी होती हैं, ‘अन्नपूर्णा’। माता पार्वती का स्वरूप होती हैं। ये ज़ेहन जिन घरों में आसरा पाते हैं, उनमें कुछ बच्चियों के तो नाम भी अन्नपूर्णा रखे गए हैं। शायद इसलिए कि अन्न और अन्नपूर्णा की अहमियत वे कभी भूलें नहीं। हर दिन, हर पल याद रखें।

अलबत्ता शिक्षा लेने और शिक्षित होने में भेद होता ही है अक़्सर। सो, यहाँ भी है। ये रईस ज़ेहन रोज बड़े चाव से अपने घरों में दाेनों समय का भोग (अन्न) पकाते हैं। भगवान को अर्पित करते हैं। फिर ख़ुद प्रसाद पाते हैं। लेकिन भोग और भोक्ता के लिए श्रद्धा बस यहीं तक। इसके बाद…

इसके बाद जो थोड़ी देर पहले भोग होता है, वही फिर जूठन हो जाता है। कभी भगोनों में भरकर तो कभी छोटी-बड़ी बाल्टियों तक में। ये जूठन उस पत्थर की फर्शी पर कचरे के ढेर की तरह पड़ा दिखाई देता है, जो उसके घर के सामने से नज़र आती है। दोनों वक़्त। इस जूठन को कभी कोई श्वान खा रहा होता है, कभी गाय-बैल या दूसरे जानवर। कभी-कभी नहीं भी खाते। यूँ ही फैला देते हैं। भोग, प्रसाद, भोजन, जूठन, सब गटर में बह जाता है। मल-जल में जा मिलता है।

ये कहानी रोज की है। सच्ची है। मध्य प्रदेश के भोपाल शहर की एक ख़ास रिहाइश की है। अलबत्ता सिर्फ़ उसी रिहाइश की नहीं है। देश और दुनिया की कमोवेश हर रिहाइश की है। 

आँकड़े बताते हैं, हिन्दुस्तान में हर साल 6.7 करोड़ टन भोजन इसी तरह जूठन की शक्ल में फेंक दिया जाता है। इसकी कीमत 92,000 करोड़ रुपए होती है। और इस अन्न काे अगर बचा लिया जाए तो इससे सालभर तक बिहार के 13 करोड़ लोगों का पेट भरा जा सकता है। 

इतना ही नहीं, दुनियाभर में हर साल 33 से 50 प्रतिशत तक भोजन ऐसे ही बर्बाद कर दिया जाता है। कभी खाया नहीं जाता। फेंक दिया जाता है। इस भोजन की कीमत एक लाख करोड़ डॉलर होती है। मतलब, भारतीय मुद्रा में लगभग 72 लाख करोड़ रुपए।

कहानी अभी यहाँ ख़त्म नहीं होती। इसका अगला पहलू ये है कि दुनिया में लगभग 80 करोड़ लोग हर रात भूखे सोते हैं। उन्हें दो जून की रोटी नसीब नहीं होती। 

हालाँकि आज सात जून है। पुरी दुनिया ‘विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस’ मना रही है। अलबत्ता ये अब भी कोई दावे के साथ नहीं कह सकता कि भोजन और भोक्ता को सुरक्षा मुकम्मल मिल चुकी है।  

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