आपके ‘ईमान’ की क़ीमत कितनी है? क्या इतनी कि कोई उसे आसानी से ख़रीद न सके?

निकेश जैन, इन्दौर मध्य प्रदेश

आपके ‘ईमान’ या आपके ‘मूल्यों’ की क़ीमत कितनी है?

सवाल विचित्र लग सकता है, लेकिन है नहीं। वास्तव में, हर किसी के ‘मूल्यों’ या ‘ईमान’ की कोई न कोई क़ीमत होती है। किसी का ईमान चन्द पैसों में बिक जाता है, तो किसी का ज़्यादा पैसों में। कोई काम, नौकरी-धन्धे में उन्नति-पदोन्नति के लिए अपने ईमान की क़ीमत लगा देता है, तो कोई अपनी या अपने परिवार में से किसी सदस्य की जान पर आँच आने की सूरत में उसे बेचने को तैयार हो जाता है। 

क़ीमत हर किसी के ईमान की होती है और उसे वह चुकानी पड़ती है। ऐसे में हम क्या कर सकते हैं? बस, शायद इतना कि अपने ईमान की क़ीमत को इतना ज़्यादा कर दें कि कोई उसे आसानी से ख़रीद न सके। 

सत्येन्द्र दुबे का मामला याद कीजिए? वे भारतीय अभियांत्रिकी सेवा (आईईएस) के अधिकारी थे। उन्होंने अपने ईमान की क़ीमत अपनी जान के बराबर लगाई हुई थी। और उन्होंने जान देकर वह क़ीमत चुकाई भी।

(सत्येन्द्र दुबे की नवम्बर 2003 में 30 साल की उम्र में बिहार में हत्या कर दी गई थी। वे भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के अधिकारी थे। कोडरमा, झारखंड में पदस्थापना के दौरान उन्होंने राष्ट्रीय राजमार्ग के निर्माण में भ्रष्टाचार के मामलों का ख़ुलासा किया था। एक मामले में तो उन्होंने ठेकेदार को ख़राब गुणवत्ता की सड़क बनाने के कारण सजा भी दिलवाई थी। उसे छह किलोमीटर की सड़क दोबारा बनानी पड़ गई थी। उनकी हत्या के पीछे यही कारण माने गए थे।) 

यानि यह पूरी तरह हम पर है कि हम अपने ईमान की क़ीमत कितनी ऊँची रखते हैं। 

पुणे का ताज़ा मामला ही ले लीजिए। वहाँ सरकारी अस्पताल के एक चिकित्सक ने महज़ तीन लाख रुपए के लिए अपना ईमान बेच दिया। 

(पुणे के एक रईस ठेकेदार के नाबालिग लड़के ने शराब के नशे में अपनी महँगी कार से दो युवाओं को कुचलकर मार दिया। सरकारी अस्पताल के चिकित्सक ने ठेकेदार से रिश्वत लेकर उसके लड़के के खून के नमूने बदल दिए। ताकि खून में शराब की मौज़ूदगी की पुष्टि न हो सके।) 

यहाँ मेरे कहने का आशय यह बिल्कुल नहीं है कि ईमान की क़ीमत तीन करोड़ रुपए होनी चाहिए। लेकिन मैं बस, ये कहना चाहता हूँ कि हमने अपने ईमान की क़ीमत इतनी मामूली लगाई तो हमें कोई भी आसानी से ख़रीद लेगा। कभी भी। किसी भी कारण से। 

वैसे, इस मामले में आदर्श स्थिति तो यह है कि ईमान की कोई क़ीमत होनी ही नहीं चाहिए। लेकिन सच्चाई यह भी है कि हम वास्तविक, व्यावहारिक दुनिया में रहते हैं। वहाँ ऐसा हो पाना मुश्क़िल है। 

लिहाज़ा याद रखिए, हमारी निष्ठा, हमारी ईमानदारी, हमारे मूल्यों से हमारा चरित्र परिभाषित होता है। और सामूहिक तौर पर हमारे चरित्र से हमारे उस संगठन की संस्कृति का पता चलता है, जिसके लिए हम काम करते हैं। उस समाज के बारे में धारणा बनती है, जिसमें हम रहते हैं। 

क्या आप सहमत हैं? 

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निकेश का मूल लेख

What is the “price” of your “values” or your “integrity”?

Sounds like a contradictory question. Right? But it is not!

Everyone’s value or integrity has a price.

For some it could be money; for some it could be a lots of money; for some it could be a promotion; for some it could be threat to life; and for some it could be a family member’s life.

What you can do is to increase that price so much that no one can “buy” your values and integrity easily.

Remember Satyendra Dubey’s case? The IES officer who put his life as the price for his integrity? Unfortunately, he paid that price.

So it’s up to us how high we want to take that price.

INR 3 Lakh to buy a government hospital doctor’s integrity is too low! (Pune accident case)

I am not suggesting it should have been 3 crore; all I am saying is – if price is so low a lot many people will get sold easily.

In an “ideal” world integrity should not be negotiable and must not have any price tag but unfortunately we all live in a “real” world.

Our Integrity, honesty and Ethos define our character.

And our collective character define the “culture” of the organization we work for and the society we live in.

Agree? 

——- 

(निकेश जैन, शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनी- एड्यूरिगो टेक्नोलॉजी के सह-संस्थापक हैं। उनकी अनुमति से उनका यह लेख #अपनीडिजिटलडायरी पर लिया गया है। मूल रूप से अंग्रेजी में उन्होंने इसे लिंक्डइन पर लिखा है।)

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